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परीक्षा व भरती घोटालेबाजों के लिए खतरा कम, मुनाफा अधिक
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक संदेश में प्रतिभाओं को स्वार्थवश दरकिनार करने की घटनाएं नयी नहीं हैं. हालांकि पहले यह घोटाला कम होता था. वह भी लुकछिप कर. अब ऐसे घोटालों ने विकराल रूप धारण कर लिया है. क्योंकि घोटालों को सत्ताधारी नेता और बड़े अफसर खाद-पानी दे रहे हैं. यह देशहित-जनहित को नुकसान पहुंचा रहा […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
संदेश में प्रतिभाओं को स्वार्थवश दरकिनार करने की घटनाएं नयी नहीं हैं. हालांकि पहले यह घोटाला कम होता था. वह भी लुकछिप कर. अब ऐसे घोटालों ने विकराल रूप धारण कर लिया है. क्योंकि घोटालों को सत्ताधारी नेता और बड़े अफसर खाद-पानी दे रहे हैं.
यह देशहित-जनहित को नुकसान पहुंचा रहा है. पहले के मेधा घोटाले के थोड़े से ऐसे उदाहरण भी आज के घोटालेबाजों को अपने पाप को उचित ठहराने का बहाना प्रदान कर देते हैं. वैसे अदालतों के समक्ष ऐसे बहानों का कोई मतलब नहीं है. पर जनता के एक वर्ग को वह तर्क सुहा रहा है. व्यापमं घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय से यह साबित होता है कि अदालत को इससे मतलब नहीं है कि जनता के एक हिस्से को क्या सुहाता है.
याद रहे कि कुछ साल पहले इंजीनियरिंग-मेडिकल काॅलेजों में पिछले दरवाजे से नामांकन कराने के आरोप में जब एक बिहारी माफिया पकड़ा गया था तो समाज के कुछ तथाकथित प्रतिष्ठित लोगों ने उसके पक्ष में जुलूस निकाला था. 2001 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के घुटने का आॅपरेशन हुआ था. वह आॅपरेशन अमेरिका में बसे भारतीय मूल के एक डाॅक्टर ने बंबई के एक अस्पताल में किया था. वह डाॅक्टर चितरंजन राणावत भारत में जब नौकरी की तलाश में थे, उन्हीं दिनों दिल्ली का एम्स बन कर तैयार हुआ था. पर एम्स ने उन्हें नौकरी नहीं दी. नतीजतन वह अमेरिका चले गये.
प्रतिभा पलायन का वह एक प्रारंभिक उदाहरणों में से एक था. आज ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे. कुछ ही साल पहले बिहार का एक युवा मुम्बई के टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइंस से सोशल वर्क में मास्टर डिग्री लेकर लौटा. उसने बिहार सरकार के एक महकमे में छोटी नौकरी के लिए अर्जी दी. इंटरव्यू हो जाने के बाद उम्मीदवार के मोबाइल पर एक संदेश आया. दो लाख रुपये का इंतजाम करने के लिए कहा गया.
उसके परिवार से इंतजाम नहीं हो सका. नतीजतन वह युवा अवसाद ग्रस्त हो गया. अब भी अवसाद में ही है. उसे सिस्टम से निराशा हो गयी है. डाॅ राणावत और इस अवसादग्रस्त युवा से संबंधित मामलों के बीच की अवधि में ऐसे न जाने कितने प्रसंग सामने आये.
अमेरिका तथा यूरोप के देशों में भारत से लाखों प्रतिभाओं का पलायन हुआ. आज नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियों के कारण लाखों प्रवासी भारतीयों के समक्ष निष्कासन का खतरा उपस्थित है. वैसे तो उन्हें यूरोप लेने को तैयार दिखता है, पर क्या भारत में भी उनके लिए दरवााजे खुलेंगे? खुलेंगे तो क्या उनकी प्रतिभा दमन के लिए चर्चित यह देश उनके साथ कितना न्याय कर पायेगा? याद रहे कि ट्रम्प जैसे कुछ नेता कुछ अन्य संपन्न देशों में भी उभर रहे हैं. नब्बे के दशक में कांग्रेस के एक पूर्व सत्ताधारी नेता से मेरी बातचीत हो रही थी.
अपने कार्यकाल में प्रतिभाओं को नजरअंदाज कर स्वजातीय को मदद करने का उन पर आरोप लगता रहा. इसकी चर्चा करने पर उन्होंने व्यक्तिगत बातचीत में खुल कर बताया था कि हम लोग आज जैसा अनर्थ नहीं करते थे. व्याख्याता की बहाली में यदि किन्हीं दो उम्मीदवारों को 20 में 18-18 अंक आते थे तो उनमें से पसंदीदा उम्मीदवार खासकर स्वजातीय को हम बहाल करवा देते थे.
पर उस स्वजातीय उम्मीदवार को भी कभी बहाल नहीं होने देते थे जिसे कम अंक आये हों. स्ट्रांग रूम खोलकर और काॅपियों में फेरबदल करने का तो तब कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था. याद रहे कि नब्बे के दशक में बिहार के भरती संगठनों के कई प्रधान भरती घोटाले के आरोप में जेल गये थे. खैर अब तो लालकेश्वर और परमेश्वर का दौर चल रहा है.
परीक्षा घोटाले में बिहार इंटर कांउसिल के अध्यक्ष लालकेश्वर प्रसाद सिंह पहले से जेल में हैं.भरती घोटाले में बिहार कर्मचारी चयन आयोग के सचिव भी हाल में जेल गये. लालकेश्वर के कुछ महीने पहले ही जेल जाने के बावजूद परमेश्वर घोटाले करते रहे. इन लोगों ने व्यापमं घोटाले में मंत्री तक की जेल यात्रा से कोई सबक नहीं सीखा. आखिर ऐसा क्यों है? कारण स्पष्ट है. लोभ जबर्दस्त है. उच्चस्तरीय संरक्षण प्राप्त है. केस बहुत दिनों चलते हैं. बाद में लोग भूल जाते हैं. सजा भी कम है. जिस धंधे में खतरा कम और लाभ अधिक हो, उसे करने में घोटालेबाज कभी नहीं डरते. क्या परीक्षा और भरती घोटालों में कठोर सजा के प्रावधान की जरूरत नहीं है? सत्ताधारी जमात के बीच के अच्छे तत्वों को इस सवाल पर विचार करना चाहिए.
कितना कारगर होगा सपा-कांग्रेस गठजोड़ : गत साल पश्चिम बंगाल में सीपीएम-कांग्रेस चुनावी गठजोड़ तो फेल कर गया था. क्या उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गठजोड़ को सफलता मिलेगी? दोनों राज्यों की स्थितियां भिन्न हैं. पर एक बात में समानता है. दोनों राज्यों में कांग्रेस से इन दलों ने सत्ता छीनी.
बंगाल में कांग्रेस बनाम सीपीएम और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बनाम सपा घात-प्रतिघात लंबे समय तक होते रहे. हिंसा-प्रति हिंसा हुई. 1984 में तो मुलायम सिंह यादव की हत्या की कोशिश का आरोप कांग्रेस पर लगा. यही नहीं 1982 में कुख्यात डाकू छबिराम पुलिस की गोली से मैन पुरी में जब मारा गया तो आरोप लगा कि कांग्रेसी सरकार ने मुलायम सिंह को कमजोर करने के लिए किया. मुलायम के लोग छबिराम को रोबिनहुड बताते रहे. यानी अमीरों से लूटना और गरीबों में बांटना छबिराम की कार्यनीति थी.
पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव नतीजे आ जाने के बाद यह खबर आयी थी कि करीब साढ़े तीन दशकों के वाम सरकार के दौर में जहां-जहां वाम कार्यकर्ताओं ने कांग्रेसियों यानी वर्ग शत्रुओं पर अधिक हमले किये, वहां के कांग्रेस समर्थकों ने सीपीएम उम्मीदवारों को वोट नहीं दिये. हालांकि सीपीएम ने आमतौर पर ईमानदारी से गठबंधन धर्म निभाया. कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा एक बड़े क्षेत्र में असहयोग के कारण सीएमएम को कांग्रेस से भी कम सीटें मिलीं अब देखना है कि उत्तर प्रदेश में कितने सपाई कांग्रेस और कितने कांग्रेसी सपा उम्मीदवारों के साथ गठबंधन धर्म का निर्बाह करते हैं.
और जुटाइए पदाधिकारियों की भीड़! : बिहार कांग्रेस के 14 उपाध्यक्ष और 33 महासचिव हैं. सचिवों की संख्या 100 है. इसके अलावा भी कई पदाधिकारी हैं. इतने अधिक महत्वपूर्ण पदों के लिए इतनी संख्या में बेदाग लोगों का मिलना आज की राजनीति में कठिन है.
एक दो दर्जन लोगों के चाल-चलन की कड़ी जांच संभव भी है. हालांकि कुछ अन्य दलों में तो कांग्रेस की अपेक्षा काफी अधिक पदाधिकारीगण हैं. सैकड़ों में. दरअसल, इन दिनों राजनीति में कार्यरत अधिकतर लोग इतने स्वार्थी और पदलोलुप हो गये हैं कि वे पद के बिना सक्रिय हो ही नहीं सकते. हालांकि कुछ अच्छे लोग अब भी राजनीति में हैं.
कुछ राजनीतिक दलों की यह मान्यता बन गयी है कि पदाधिकारियों के चयन के सिलसिले में भरसक सभी जातियों के बीच से पदाधिकारी बनाये जाने चाहिए. इतनी बड़ी संख्या में पदाधिकारियों के बीच से कब किस पर कैसा आरोप लगेगा, यह कहना कठिन है. आरोप किसी पदाधिकारी पर लगता है और बदनामी पार्टी की होती है. हाल के वर्षों में भी कतिपय दलों के पदाधिकारियों के साथ शर्मनाक विवाद जुड़े हैं. क्या राजनीतिक दल थोक भाव से पदाधिकारी बनाने के काम से अब भी बाज आयेंगे.
…और अंत में
2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव प्रचार में कुछ नेताओं ने जम कर अपशब्दों का इस्तेमाल किया था. उससे अधिक अपशब्दों का इस्तेमाल इन दिनों उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में हो रहा है. इस प्रचार के दौरान जिन घृणित अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं हो सका है, संभवतः उसका इस्तेमाल किसी अगले चुनाव में हो जाये. क्योंकि न तो चुनाव आयोग उन बदजुबान नेताओं की नकेल कसने को तैयार है और न ही नेता सुधरने का नाम ले रहे हैं.
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