पटना ट्रैफिक पुलिस ने पिछले कुछ दिनों से शहर में लोगों को हेलमेट पहनाने का अभियान चला रखा है. पहले बाइक चालकों को हेलमेट पहनाया गया. अब बाइक के पीछे बैठने वाले लोगों को भी इसकी जद में लाया गया है. बिना हेलमेट लगाये बाइक पर बैठनेवाले लोगों को हर चौक-चौराहे पर पुलिस इस तरह से पकड़ रही है, मानों उन्होंने कोई बड़ा जुर्म किया हो. लेकिन ट्रैफिक पुलिस के उसी दस्ते के सामने से ड्राइविंग सीट पर दो-तीन पैसेंजरों को बिठाये टेंपो और गेट तक पैसेंजर लादे मिनी बसें निकलती हैं, लेकिनउनके विरुद्ध कार्रवाई नहीं होती. सवाल है कि ट्रैफिक पुलिस की सारी प्रतिबद्धता हेलमेट तक ही सीमित क्यों हैं. क्या रोड सुरक्षा के अन्य मानकों का कोई मतलब नहीं है, बाकी नियम-कानून व्यर्थ हैं. अनुपम कुमार की रिपोर्ट
सीट बेल्ट नहीं लगाने पर कार्रवाई नहीं
दुपहिए वाहनों चालकों व सवारों को हेड इंज्यूरी से बचाने के लिये जैसे हैलमेट जरूरी है, उसी तरह कार, जीप और अन्य चारपहिया वाहनों में हेड इंज्यूरी से बचने के लिये सीट बेल्ट लगाना आवश्यक होता है. लेकिन राजधानी में बहुत कम लोग सीट बेल्ट का इस्तेमाल करते हैं. यह स्थिति तब है, जब नयी बनी सभी गाड़ियों में सीट बेल्ट लगा हुआ ही आता है. कार की अगली सीट पर बैठे लोगों के द्वारा सीट बेल्ट नहीं लगाने की सबसे बड़ी वजह पुलिस वाले के द्वारा सख्ती नहीं बरता जाना है. वे सीट बेल्ट नहीं लगाने पर किसी को फाइन करते हुए नहीं दिखते. इसके कारण बगल में सीट बेल्ट होता है लेकिन लोग उसका इस्तेमाल नहीं करते है.
ऑटो की मनमानी पर रोक नहीं
राजधानी के ऑटो चालक ट्रैफिक रेगुलेशन की धज्जियां उड़ा रहे हैं. ओवरलोडिंग को वे अपना अधिकार मान चुके हैं. पुलिस ने भी उनको मौन सहमति दे रखी है. ओवर लोडेड टेम्पू ट्रैफिक पोस्ट और पुलिसकर्मियों के सामने से लगातार गुजर रहे, लेकिन उन पर कार्रवाई नहीं होती. कभी टेम्पू चालकों के सामूहिक विरोध के नाम पर तो कभी यात्रियों के असहयोग के नाम पर उन पर कार्रवाई से बचा जा रहा है. इससे शहर के लोगों को असुविधा हो रही है. साथ ही, बाहर से आने वालों के बीच शहर की छवि भी खराब हो रही है.
दुर्घटना की बड़ी वजह ओवर लोडिंग
ड्राइविंग सीट पर दो-तीन यात्रियों को बिठाने से ऑटो चालक को हैंडिल या स्टेयरिंग घुमाने में परेशानी होती है. ऑटो से होनेवाली ज्यादातर दुर्घटनाओं की वजह ड्राइविंग सीट पर ओवर लोडिंग होता है. पटना शहर में हर महीने ऑटो रिक्शा से 20-25 छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं होती हैं. उसमें भी ड्राइवर के बायीं तरफ की तुलना में दांयी तरफ यात्री बिठाना अधिक खतरनाक हैं क्योंकि दुर्घटना की स्थिति में दाहिनी ओर से ही टकराव की अधिक आशंका होती है. दाहिने ओर से पैसेंजर बिठाने पर पीछे से आनेवाले वाहन से उनके टकराने की आशंका भी होती है. ड्राइवर के दाहिने ओर पैसेंजर बिठाने पर रोक लगाने के लिये उसे रॉड लगाकर पैक भी किया गया है लेकिन कई आॅटो चालक उन्हें निकाल कर भी ओवरलोडिंग करते हैं.
क्षमता से दोगुनी सवारी बैठाते
पटना में तीन तरह के तिपहिये वाहन इन दिनों चल रहे हैं. इनमें सबसे छोटा तीन सीटर है. उन पर पांच-छह लोगों को बिठाया जाता है. तीन सवारी पीछे नियत सीट पर जबकि दो-तीन आगे ड्राइविंग सीट पर. कई ऑटो चालकों ने इसके लिये ड्राइविंग सीट के बगल में बाकायदा एक गद्देनुमा सीट भी लगा दिया है. दूसरा तिपहिया वाहन चार सीटर है. उस पर आठ-नौ लोगों को बिठाया जाता है. आगे पीछे की नियत दो-दो सीट पर तीन-तीन सवारी और आगे ड्राइविंग सीट पर भी दो-तीन सवारी बिठाये जाते हैं. छह सीटर विक्रम पर दस सवारी बिठाया जाता है. इसमें पीछे के दोनों सीटों पर तीन-तीन की जगह चार-चार सवारी और ड्राइवर के बगल वाली सीट पर दो सवारी होते हैं.
तेज रफ्तार ट्रक बने बड़े खतरे
पटना शहर और आसपास के क्षेत्रों में लगभग एक लाख ट्रक हैं. यहां बाहर से विभिन्न प्रकार की सामग्रियां लेकर हर दिन आने वाले ट्रकों की संख्या भी एक से डेढ़ लाख के बीच होती है. लेकिन इनकी निगरानी और नियंत्रण के मोर्चा पर पटना की ट्रैफिक व्यवस्था पूरी तरह फेल कर गयी है. उनकी अनियंत्रित रफ्तार राजधानी के ट्रैफिक व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या बन कर उभरी है. हर महीने ट्रक से कुचले जाने वालों की संख्या दर्जन भर से अधिक होती है. कई की इस दौरान मौत भी हो जाती है. इसके बावजूद जिला परिवहन कार्यालय और ट्रैफिक पुलिस के पास न तो गति जांचने वाले उपकरण हैं और न ही तेज रफ्तार वाहनों के निगरानी की प्रभावी व्यवस्था. बाइपास और शहर से सटे राष्ट्रीय उच्च पथ पर सबसे अधिक यह समस्या दिखायी पड़ती है. लंबे जाम ने इसे और भी बढ़ाया है. घंटों जाम में फंसे रहने के बाद जब गाड़ियों को निकलने को मौका मिलता है तो चालकों में जल्द से जल्द गंतव्य तक पहुंचने और आगे निकलने की होड़ लग जाती है. ये गाड़ियां एक दूसरे को इस तरह ओवरटेक करती हैं कि साइड लेन से जा रहे व्यक्ति के लिये इससे बचना मुश्किल होता है. सड़क किनारे बालू भी खतरनाक हैं.
प्रेशर हॉर्न बिगाड़ रहा संतुलन
प्रेशर हॉर्न के इस्तेमाल पर लगा प्रतिबंध भी केवल कागजों तक सिमटा है. राजधानी की सड़कों पर उनका इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है. ट्रकों द्वारा इसका सबसे अधिक दुरुपयोग हो रहा है. बाइपास और हाइवे पर जाम टूटने के बाद कुछ समय तक इनका इतना अधिक इस्तेमाल होता है कि पूरा क्षेत्र शोर में डूब जाता है. इससे आगे चलने वाले वाहन चालक कई बार असंतुलित होकर पीछे से आ रहे बड़े वाहनों की चपेट में आ जाते हैं. पावर स्टेयरिंग से भी ट्रक चालकों की मनमानी और रफ्तार बढ़ी है.पुराने मॉडल की ट्रकों में स्टेयरिंग घुमाना मुश्किल भरा होता था.
फिटनेस के मानकों का पालन नहीं
केंद्रीय मोटरवाहन अधिनियम और मोटर वाहन नियमावली में ट्रकों के लिये कड़े प्रावधान हैं. रजिस्ट्रेशन के दो साल पूरा हो जाने के बाद से इनके लिये हर साल फिटनेस सर्टिफिकेट लेना अनिवार्य है. फिटनेस जांच के दौरान गाड़ियों के इंजन की स्थिति ठीक होनी चाहिए. ब्रेक, हेड लाइट, बैक लाइट, इंडिकेटर, विंड स्क्रीन, ट्राॅली आदि ठीक होनी चाहिए. पटना में चलने वाले ज्यादातर ट्रक इन प्रावधानों का उल्लंघन करते दिखते हैं.
जुर्माना होता है, पर असर नहीं दिखता
केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम की धारा 194 में ओवर लोडेड व ओवर हाइट ट्रकों पर जुर्माने का प्रावधान है. ओवरलोडिंग व ओवर हाइट के लिए जुर्माना किया जाता है, लेकिन इसमें वैसी सख्ती नहीं दिखती, जैसा हेलमेट नहीं पहनने वालों के विरुद्ध दिखाई पड़ता है. यही कारण है कि असर भी कम दिखता है.
रोड सेफ्टी का उल्लंघन कर रहीं सिटी बसें
पटना की सड़कों पर इस समय 340 सिटी बसें दौड़ रही हैं. पिछले दिनों 15 वर्ष पुराने व्यावसायिक वाहनों के खिलाफ शुरू हुए अभियान से पहले तक इनकी संख्या 400 थी. अभियान के दौरान इनमें से 60 पुरानी बसों का परमिट रद्द कर दिया गया. इसके बावजूद समस्या का निदान नहीं निकला है. नगर सेवा की तीन-चार साल पुरानी बसें भी सवारी ढोने लायक नहीं रह गये हैं.
पटना में इस समय दो तरह की मिनी बसें चल रही हैं. इनमें एक 22 सीटर है जबकि दूसरी 26 सीटर. 22 सीटर बस में जगह इतनी कम रहती है कि यात्रियों को आने-जाने में भी परेशानी होती है. सीट की चौड़ाई इतनी कम होती है कि दो सीटों पर दो व्यक्ति को बैठने में भी परेशानी होती है और एक आदमी का आधा शरीर सीट से बाहर हवा में लटका रहता है. कई सीटें उखड़ी भी रहती हैं, जिनमें कांटी और लोहे के टुकड़े निकले हुए रहते हैं. कपड़े को फाड़ने के साथ कई बार ये यात्री को लहूलुहान भी कर देते हैं. लेग स्पेस इतना कम रहता है कि सामान्य कदकाठी के व्यक्ति का पैर भी अगली सीट से स्पर्श करे. छत की ऊंचाई इतनी कम होती है कि साढ़े पांच फीट के आदमी का सिर भी छत से सट जाता है अौर जरा भी असावधानी से सिर पकड़ने वाले रॉड से टकरा जाती है.
जुर्माने का प्रावधान, पर नहीं किया जाता है
बस में क्षमता से अधिक यात्री बिठाने पर एक हजार रुपये जुर्माने का प्रावधान है, लेकिन सभी रूट के मिनी बस इस प्रावधान का उल्लंघन करते हैं. सबसे आगे की सीट पर तीन की जगह पांच और पीछे अंतिम सीट पर पांच की जगह छह लोग अक्सर बैठे दिखते हैं. पाथ वे भी पूरी तरह भरी रहती है और लोगों को खड़े रहने की जगह भी नहीं मिलती. कई बार तो गेट तक लोग लटके दिखते हैं. हर दिन ऐसे ओवर लोडेड बस पुलिस और परिवहन विभाग के अधिकारियों के सामने से होकर गुजरती है लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती है.
जर्जर बसों के परमिट का भी रिन्यूअल
नगर सेवा की बसों को परमिट जारी करने का काम क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकार का है. उससे पहले रजिस्ट्रेशन के दौरान एमवीआइ गाड़ी का निरीक्षण करते हैं. इस दौरान देखा जाता है कि बस के मूलभूत संरचना में कोई बदलाव तो नहीं किया गया है.
एक बार में पांच साल के लिये परमिट जारी होता है, जिसका बाद में रिन्यूअल कराने का प्रावधान है. परमिट जारी होने के दो वर्ष बाद से हर साल इन वाहनों भौतिक सत्यापन भी जरूरी है. जांच से जुड़े अधिकारी कई बार यह कह कर पल्ला झाड़ने का प्रयास करते हैं कि निरीक्षण के समय बसों में खामियां नहीं थी, बाद में चलने के दौरान वे आ गयी होंगी. लेकिन उनके पास इस बात का कोई जबाव नहीं होता कि यदि चलने के दौरान बसों की हालत जर्जर हुई तो हर साल होने वाले भौतिक सत्यापन के दाैरान एमवीआइ इस पर ध्यान क्यों नहीं देते. दस साल बाद होनेवाले रिन्यूअल से पहले आरटीए के द्वारा भी निरीक्षण का प्रावधान है. कमी होने पर वे इसे दूर करने का निर्देश दे सकते हैं फिर जर्जर बसें कैसे सड़क पर नजर आती हैं.
बिना नंबर प्लेट के चल रहे ट्रैक्टर
पटना की सड़कों पर ट्रैक्टर भी यातायात के नियमों और तय मानकों का उल्लंघन करती दिखती है, जो सड़क सुरक्षा के लिये खतरनाक है. कूड़ा ढोने वाले कई ट्रैक्टरो पर नंबर प्लेट अंकित नहीं दिखता है. इनमें नगर निगम की अपनी गाड़ियों के साथ साथ वैसी गाड़ियां भी शामिल होती हैं जो बाहरी ठेकेदारों के द्वारा नगर निगम का कूड़ा ढ़ोने के लिये इस्तेमाल की जा रही है.
गाड़ी चालक अपनी गाड़ियों को उसके पिचके या टूटे हिस्सों को देख कर पहचान लेते हैं लेकिन आम आदमियों के लिये इनको पहचानना बड़ा मुश्किल होता है. ऐसे में यदि वे दुर्घटनाग्रस्त हो जायें तो खोजना मुश्किल है कि किस ट्रैक्टर से आदमी दुर्घटनाग्रस्त हुआ. ऐसे में न तो पुलिस द्वारा दोषी ट्रैक्टर को पकड़ना संभव है और न ही दुर्घटनाग्रस्त या हताहत व्यक्ति के परिजनों को मुआवजा दिलवाना. इसके बारे में परिवहन विभाग के अधिकारियों को भी जानकारी है. लेकिन इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है क्योंकि विभाग के पास जांच अधिकारियों व कर्मियों की कमी है.
कम सख्ती की वजह
केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम और बिहार मोटर वाहन नियमावली के अंतर्गत हर वाहन के प्रदूषण स्तर की जांच आवश्यक है. देश व दुनिया के अन्य हिस्सों में पेट्रोल चालित वाहनों के प्रदूषण स्तर की जांच के लिये फोर गैस एनालाइजर का इस्तेमाल होता है, जो वाहन के धुएं में मौजूद चार प्रमुख प्रदूषणकारी गैस की मात्रा को बताता है. डीजल वाहनों की जांच के लिये स्मोक मीटर का इस्तेमाल होता है. अब तक ये उपकरण पटना पुलिस को नहीं मिले हैं.
जिला परिवहन कार्यालय को एक मिला भी है तो उसके लिए न परिवहन कार्यालय के पास ऑपरेटर है और न ही अन्य सहायक उपकरण. स्मोक मीटर चलाने के लिए इनवर्टर की जरूरत पड़ती है. इसके साथ एक प्रिंटर की जरूरत पड़ती है.
पटना में इस समय 10-11 लाख वाहन अब भी चलने लायक स्थिति में हैं. इनमें तीन लाख व्यावसायिक वाहन हैं. इसमें 50,725 वाहन पिछले पांच वर्षों में रजिस्टर्ड हुए हैं, जबकि 85 हजार वाहन 15 वर्षों से अधिक पुराने हैं. सात-आठ लाख निजी वाहनों के रेगुलेशन का जिम्मा भी जिला परिवहन कार्यालय पर है, लेकिन उसके पास कर्मियों की कमी है.
उसके पास दो एडीटीओ व चार एमवीआइ ही हैं. प्रवर्तन अवर निरीक्षकों की संख्या भी महज चार है. आवश्यक उपकरणों की कमी के कारण वाहनों के प्रदूषण स्तर निर्धारित करने के लिए जिला परिवहन कार्यालय और ट्रैफिक पुलिस पूरी तरह प्रदूषण सर्टिफिकेट पर निर्भर है. शहर में प्रदूषण जांच केंद्र कई हैं, लेकिन जांच में सख्ती नहीं बरती जाती.
शहर में केवल एक जगह वेटनरी कॉलेज ग्राउंड पर गाड़ियों का फिटनेस टेस्ट किया जाता है. अनुमंडल स्तर पर बख्तियारपुर के अलावा अन्य जगह फिटनेस जांच की व्यवस्था नहीं है. इसके कारण मोकामा, पुनपुन और मसौढ़ी के वाहन चालकों को भी अपनी गाड़ी वेटनरी काॅलेज ग्राउंड लाकर फिटनेस जांच करवानी पड़ती है. तीस-चालीस किलोमीटर दूर आकर फिटनेस जांच करवाने से ज्यादातर वाहन मालिक बचना चाहते हैं. इसके कारण जिलों की ज्यादातर गाड़ियां फिटनेस जांच के लिये नहीं आती हैं. फिटनेस सर्टिफिकेट लेने में रुचि केवल उन गाड़ियों की होती है जो सामान लेकर गाड़ियां अक्सर पटना शहर में आती है. कागज नहीं रहने पर उन्हें ट्रैफिक पुलिस के पकड़ने का भय बना रहता है.
ऑटोचालकों के विरुद्ध भी जल्द होगी कार्रवाई
– हेलमेट तो आपने पहना दिया, ऑटो ओवरलोडिंग के विरुद्ध कब कार्रवाई होगी?
ट्रैफिक रेगुलेशन के साथ अब तक हम अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल हेलमेट पहनाने में कर रहे थे. बाइक चालक के साथ साथ हम पीछे बैठने वाले को भी हेलमेट पहनाने में सफल रहे हैं. अब जल्द ही अपनी ऊर्जा ओवरलोडिंग करनेवाले ऑटो चालकों के विरुद्ध लगाने वाले हैं. उन पर भी सख्ती के साथ कार्रवाई होगी.
– रोड सेफ्टी के कई मानक हैं. सबके विरुद्ध एक जैसी सख्ती क्यों नहीं दिखाई देती है?
हमारे पास कर्मियों की कमी है. इसलिए सभी चीजों पर एक साथ पूरा ध्यान लगाना संभव नहीं है. बारी-बारी से ही हम चीजों को अंजाम दे सकते हैं.
– आपके पास फोर गैस एनालाइजर और स्मोक मीटर नहीं है. इनके बिना आपको प्रदूषण के जांच में परेशानी नहीं होती?
बिल्कुल होती है. मैं मानता हूं कि कई बार पॉल्यूशन सर्टिफिकेट भी गलत होता है लेकिन सब कुछ देखते हुए भी कम कुछ कर नहीं पाते हैं क्योंकि हमारे पास उसे साबित करने का उपकरण नहीं है. कई बार पकड़ने के बाद भी काला धुआं देने वाले वाहनों को इसलिए छोड़ना पड़ता है क्योंकि उनके पास पॉल्यूशन सर्टिफिकट होता है.
इंट्री प्वाइंट पर ही ठोंक दिया जाता है जुर्माना
– बिना नंबर प्लेेट वाले नगर निगम के ट्रैक्टर अब भी घूम रहे हैं. कार्रवाई क्यों नहीं होती है?
अभी हम दीघा रूट में बाजा बजाते हुए तेज गाड़ी चलाने वाले ऑटो चालकों के विरुद्ध कार्रवाई में लगे हैं. इसमें हमारे तीन प्रवर्तन अवर निरीक्षक लगे हुए हैं. इस अभियान को पूरा करने के बाद हम अपने मोबाइल टीम को बिना नंबर प्लेट के चलने वाले ट्रैक्टरो के विरुद्ध लगायेंगे.
– रोड सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा ओवरहाइट लोडेड ट्रक हैं. इनके विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं होती?
बिहार के बाहर से जो ट्रक प्रदेश में आते हैं. उनसे इंट्री प्वाइंट पर ही ओवरहाइट फाइन के रूप में एक हजार रुपये ले लिये जाते हैं और फाइन की रसीद लेकर ही ट्रक यहां की सड़कों पर घूमते हैं. टॉल टैक्स पोस्ट की आमदनी का बड़ा भाग इस फाइन से ही आता है.
– ओवरलोडेड ट्रक सड़कों को नुकसान पहुंचाते हैं. फिर कड़ी कार्रवाई क्यों नहीं होती है?
उन पर हर दिन फाइन किया जाता है. हर महीने सरकारी को इससे लाखों की प्राप्ति होती है.
– आपको स्मोक मीटर मिला है. फिर इस्तेमाल क्यों नहीं करते है?
हमारे पास लॉजिस्टिक सपोर्ट नहीं हैं. इसके लिये बैटरी व अन्य एसेसरीज चाहिए. उनको लादने के गाड़ी चाहिए. कंप्यूटर ऑपरेटर चाहिए. उनके बिना उसका इस्तेमाल संभव नहीं है.
– फिटनेस के भौतिक सत्यापन के समय बसों की जर्जर स्थिति पर क्यों ध्यान नहीं देते?
एमवीआइ भौतिक सत्यापन के समय बसों के मैकेनिकल भाग की जांच करते हैं. मैं निर्देश दूंगा कि इसे और सख्ती के साथ किया जाये. सीट की लंबाई-चौड़ाई, निकास द्वार की स्थिति आदी देखने का काम परमिट बनाने के समय निरीक्षण के दौरान होता है जो क्षेत्रीय परिवहन प्राधिकार करती है.
प्राधिकार की बैठक में उठाऊंगा
– 15 साल पुराने बसों के बाहर होने के बाद भी सिटी बसों की दशा नहीं सुधरी है?
परमिट जारी करने के बारे में दिशा निर्देश प्राधिकार की बैठक में तय होता है. मैं बैठक में इस मामले को उठाऊंगा. उसके बाद जो निर्णय होगा, उसके अनुरूप कार्रवाई होगी.
– जो बसें चलने लायक नहीं, उनके परमिट का कैसे रिन्यूअल होता है?
आगे मैं खुद ऐसे मामलों पर ध्यान दूंगा. कमी पर कार्रवाई होगी.
– पटना को जर्जर सिटी बसों से छुटकारा मिलेगा?
ये नीति निर्धारण से जुड़ा मुद्दा है और हमारे अधिकार क्षेत्र से बाहर है. यदि सरकार इसके लिए पहल करती है तो खुशी होगी.