सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
मुंबई-गोवा राजमार्ग पर स्थित महाड़ में ब्रिटिशकालीन पुल बह गया. बाइस सवारियों सहित दो बसें नदी की तेज धार में बह गयीं. गत मई में ही संबंधित विभाग ने जांच रिपोर्ट दी थी कि पुल को कोई खतरा नहीं है. या तो जांचकर्ता नाकाबिल थे, या फिर ऑफिस में ही बैठकर रिपोर्ट भेज दी गयी होगी! इस देश में डिग्रियां हासिल किये कुल इंजीनियरों में से सिर्फ 27 प्रतिशत इंजीनियरों को ही कोई संस्थान काम लायक समझता है.
क्या अयोग्य इंजीनियरों को ही महाड़ पुल की जांच का भार दिया गया था? यह सब तो जांच के बाद ही सामने आएगा. बिहार में भी ऐसे पुलों की कमी नहीं है जिनके टिकाऊपन की जांच एक बार फिर कर लेने की जरूरत है. जांच अभियान चलाया जाना चाहिए. रेलवे महकमा भी अपने पुराने पुल-पुलियों की जितनी जल्द जांच करा ले, उतना ही अच्छा होगा. लोगों की जान का जो सवाल है! अंग्रेजों के जमाने वाले पुलों की बात कौन कहे, अब तो नवनिर्मित पुलों पर भी खतरा बना रहता है. पटना स्थित गांधी सेतु इसका शर्मनाक नमूना है.
इस सेतु का एक लेन 1982 और दूसरा 1987 चालू हुआ था. पर दस पंद्रह साल बाद ही गांधी सेतु को मरम्मत की जरूरत पड़ने लगी थी. मरम्मत के काम की उपेक्षा के कारण यह पुल लगभग बेकार हो गया. आजादी के बाद और खासकर हाल के वर्षों में निर्मित अनेक पुलों के टिकाऊपन को लेकर गंभीरता से जांच करने की जरूरत है. यदि उनमें कोई कमी लगे महाराष्ट्र की ताजा घटना को ध्यान में रखते हुए उनकी विशेष देखरेख की दिशा में कारगर कदम उठाये जाने की आवश्यकता है. क्या सरकार और संबंधित एजेंसी इस पर शीघ्र काम शुरू कर देंगी?
शांतिप्रिय लोगों के लिए अच्छी खबर
बिहार में आधुनिक और कारगर पुलिस हेल्पलाइन शुरू किये जाने की योजना है. हेल्पलाइन नंबर रात-दिन काम करेगा. सबसे अच्छी बात यह है कि यह हेल्पलाइन नंबर राज्य मुख्यालय में होगा. कोई जिम्मेदार अधिकारी उसके काम की निगरानी करेंगे. यदि प्रस्तावित हेल्पलाइन सचमुच कारगर ढंग से काम करने लगे तो राज्य के शांतिप्रिय लोगों को बड़ी राहत मिलेगी.
वे खुद को सशक्त महसूस करेंगे. याद रहे कि हाल के महीनों में शांतिप्रिय लोगों की चिंता बढ़ी है. इसका कारण है. अपराध के आंकड़े जो भी हों. पर यदि जघन्य अपराधों में सत्ताधारी दलों के कुछ छोटे-बड़े नेताओं के नाम आने लगे तो चिंता बढ़ जाती है. हालांकि ताकतवर अपराधी भी गिरफ्तार हो रहे हैं. अभी तो शिकायत करने जाने पर थानों में लोगों को उल्टे अपमान झेलने पड़ते हैं. आम तौर पर रिश्वत या तगड़ी पैरवी के बिना कोई शिकायत ही नहीं लिखी जाती.
बेघर पूर्व सीएम पर तो विचार करे अदालत
सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सीएम को जीवन भर के लिए सरकारी बंगला देने के नियम को गैर कानूनी ठहराया है. सबसे बड़ी अदालत के इस फैसले को अधिकतर लोग सही मान रहे हैं. यदि बंगले इसी तरह पूर्व सीएम को मिलते रहे तो एक दिन वर्तमान सीएम और मंत्रियों के लिए बंगले नहीं मिल पाएंगे. वैसे भी उन पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगला भला क्यों चाहिए जिनके उसी शहर में अपने एक या उससे अधिक निजी मकान हैं? पर, अदालत से एक गुजारिश की जा सकती है. ऐसे पूर्व मुख्यमंत्रियों पर तो वह एक बार फिर विचार करे जिनका कहीं किसी शहर में अपना मकान नहीं है.
पर, सिर्फ पूर्व सीएम ही क्यों?
ऐसे गृह विहीन मुख्य न्यायाधीशों, संसद
और विधायिकाओं के पूर्व पीठासीन पदाधिकारियों तथा ऐसे बड़े पदों पर रह चुके अन्य लोगों को लिए भी आवास का प्रावधान किया जाना चाहिए. हालांकि
इस ‘अर्थ युग’ में अब ऐसे बहुत कम ही लोग बचे
होंगे जिनके पास अपने भवन नहीं हैं. इसलिए
सरकारों पर अधिक बोझ भी नहीं पड़ेगा. उन्हें यदि बंगला नहीं तो कम से कम कोई फ्लैट तो मिलना ही चाहिए.
कुछ उदाहरण ऐसे भी
आजादी के तत्काल बाद के वर्षों में ऐसे अनेक नेता लोग थे. उन्होंने सरकार से बंगले की मांग ही नहीं की. डॉ राजेंद्र प्रसाद 1962 में राष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद पटना के सदाकत आश्रम के एक जर्जर मकान में रहने को बाध्य थे. जबकि, राजेंद्र बाबू दमा के मरीज थे.
उस जर्जर मकान को तो जय प्रकाश नारायण ने जन सहयोग से मरम्मत करवा कर उनके रहने लायक बनवाया था. डॉ श्रीकृष्ण सिंह, भोला पासवान शास्त्री और कर्पूरी ठाकुर जैसे कुछ मुख्यमंत्रियों ने भी अपना कहीं कोई मकान नहीं बनवाया था. श्रीबाबू के पुत्र ने जब पटना में अपना मकान बनवाया तो श्रीबाबू घर भोज में भी नहीं गये थे. पर बाद के वर्षों में सरकारी मकान लेने की होड़ मच गयी. कम से कम दो पूर्व राष्ट्रपतियों के बारे में खबरें मैंने पढ़ी थीं. उन्होंने अपने आलीशान मकानों के रहते सरकार से मकान लिये.
पुलिसकर्मी और पूरी नींद
एक बार फिर ड्यूटी पर सोते पुलिसकर्मियों पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नजरें गयी हैं. ड्यूटी पर सोना बुरी बात है. लापरवाह पुलिसकर्मियों को इसकी सजा मिलनी ही चाहिए. आलसी पुलिसकर्मी ड्यूटी से लापरवाह होते ही हैं.
पर उनमें से कुछ की मजबूरी भी होती है. सेना-पुलिस के लोग जब रातों में जागते हैं तभी आम लोग चैन की नींद सो पाते हैं. पर उनकी समस्याओं पर भी ध्यान देने की जरूरत है. ड्यूटी पर सोते पकड़े जाने वाले पुलिसकर्मियों से कोई यह क्यों नहीं पूछता कि पिछले पचास घंटों में कितने घंटों की ड्यूटी तुमने की है? दरअसल अनेक पुलिसकर्मियों को निर्धारित समय से काफी अधिक ड्यूटी करनी पड़ती है. पुलिसकर्मियों की कमी की समस्या पूरे देश में है. पुलिसकर्मियों की सेवा शर्तों में बड़े सुधार की जरूरत है.
क्या पत्रकार ‘विश्व नागरिक’ होता है ?
इस देश की मीडिया को लेकर एक बहस छिड़ी हुई है. क्या पत्रकार ‘विश्व नागरिक’ होता है? क्या पत्रकार के देश पर कोई अन्य देश हमला कर दे तो पत्रकार को वैसी ही भूमिका निभानी चाहिए जिस तरह की भूमिका की उम्मीद संयुक्त राष्ट्र से की जाती है? यह बहस इस देश में इन दिनों पाकिस्तान, आतंकवादियों और कुछ अन्य विध्वंसक लोगों की भूमिका को लेकर है. याद रहे कि पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ अघोषित और छद्म युद्ध छेड़ रखा है.
एक अघोषित युद्ध 1982 में भी हुआ था. वह अर्जेंटिना और ब्रिटेन के बीच था. ब्रिटिश
उपनिवेश फॉकलैंड पर अर्जेंटिना ने कब्जा करने की विफल कोशिश की थी. उस युद्ध में बीबीसी की कैसी भूमिका थी? दस सप्ताह तक चले उस युद्ध को लेकर बीबीसी की तब की भूमिका का वैसे भारतीय पत्रकारों को अध्ययन कर लेना चाहिए जो ‘विश्व नागरिक’ की भूमिका निभाना चाहते हैं.
और अंत में
एक पिता परेशान रहते थे. उनके अविवाहित और बेरोजगार जवान बेटे ने पीना शुरू कर दिया था. उसे अपने दोस्तों के यहां मुफ्त शराब मिल जाती थी. पिता अपनी परेशानी मुझसे साझा करते थे. इस बीच बिहार में नशाबंदी लागू हो गयी. पिता इन दिनों खुश हैं. अब वह कहते हैं कि मेरा होनहार बेटा बर्बाद होने से अब बच जायेगा. एक खास कड़े प्रावधान को छोड़कर नशाबंदी कानून के अन्य प्रावधानों से वह पिता भी खुश है. क्योंकि अब उस बेटे के लिए शराब हासिल करना लगभग असंभव हो चुका है.