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न किताबें होती हैं, न गोष्ठियां, बस सैलरी बंटती है

पुष्यमित्र पटना : टना में शास्त्रीनगर के सरकारी क्वार्टरों में एक तीन मंजिला भवन है. छह क्वार्टरों वाले इस भवन के पांच क्वार्टरों में राज्य सरकार से संबद्ध छह भाषायी अकादमियां संचालित होती हैं. एक कामकाजी दिन में दोपहर 12 बजे के करीब यह संवाददाता जब उस भवन में पहुंचा, तो मैथिली अकादमी में एक […]

पुष्यमित्र
पटना : टना में शास्त्रीनगर के सरकारी क्वार्टरों में एक तीन मंजिला भवन है. छह क्वार्टरों वाले इस भवन के पांच क्वार्टरों में राज्य सरकार से संबद्ध छह भाषायी अकादमियां संचालित होती हैं. एक कामकाजी दिन में दोपहर 12 बजे के करीब यह संवाददाता जब उस भवन में पहुंचा, तो मैथिली अकादमी में एक सज्जन हाथ पंखे को झल रहे थे. भोजपुरी अकादमी में दो लोग बैठ कर गांजा पी रहे थे. मगही अकादमी में दो-तीन लोग बिना किसी काम के बैठे थे.
बांग्ला अकादमी में एक चतुर्थवर्गीय कर्मी परदा ठीक कर रहा था, जबकि संस्कृत अकादमी में एक सज्जन कंप्यूटर पर कुछ टाइप कर रहे थे. यह इन अकादमियों का रोज का दृश्य है, क्योंकि इनके पास पिछले तीन-चार सालों से कोई काम नहीं है. न किताबें छपती हैं, न कोई साहित्यिक आयोजन होता है, न पुरस्कार-सम्मान देने की बात होती है.
राजेंद्रनगर स्थित बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी और सैदपुर स्थित बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में तो थोड़ा बहुत काम होता भी है, मगर वह भी ऊंट के मुंह में जीरा है. पिछले साल जून महीने में खुली अंगिका अकादमी को तो अब तक अपना कार्यालय भी नहीं मिला है. कुल मिला कर उच्च शिक्षा विभाग से इन संस्थाओं को करीब चार करोड़ रुपये का सालाना ग्रांट मिला है और वह पूरा का पूरा पैसा इन अकादमियों के कर्मियों के वेतन, पेंशन और बकाया वेतन वगैरह में खर्च होता है.
साहित्यिक गतिविधियों के लिए इन संस्थाओं को राज्य सरकार की ओर से एक पैसा नहीं मिलता. संस्थाएं कहती हैं कि चूंकि पैसा नहीं मिलता, इसलिए वे न प्रकाशन करते हैं, न आयोजन. जबकि सरकार कहती है, संस्थाएं कोई प्रस्ताव नहीं देती हैं, इसलिए इन्हें योजनाओं के लिए कोई ग्रांट नहीं मिलता. और इस गड़बड़झाले में पिछले कई सालों से ये लोग बैठ कर वेतन ले रहे हैं और राज्य में साहित्यिक गतिविधियां लगभग ठप हैं.
मैथिली अकादमी के एक कर्मी बताते हैं, यहां तो कई साल से समितियां भी गठित नहीं हो पायी हैं. प्रस्ताव भी भेजा जाये, तो कैसे भेजा जाये. वैसे 70 से अधिक पांडुलिपियां पड़ी हैं. इनके छापने की कोई व्यवस्था नहीं है.
दरअसल, कभी बिहार राज्य मैथिली अकादमी प्रकाशन और आयोजन के लिए बेहतरीन संस्था मानी जाती थी, लेकिन आज इसके पास किताब रखने के लिए जगह नहीं है. जहां दूसरी अकादमियों के पास अपनी छपी किताबें बहुत कम हैं, मैथिली अकादमी अब तक 214 किताबें प्रकाशित कर चुका है. इनमें से कई पुस्तकों को साहित्यिक अकादमी पुरस्कार भी मिल चुके हैं. इनकी छपी किताबें कई विवि में पढ़ाई जाती हैं.
मगर आज ये किताबें धूल फांक रही हैं. अकादमी के पास 2012 से न पूर्णकालिक अध्यक्ष है और न निदेशक. 21 पदोंवाली इस अकादमी में अभी सिर्फ तीन चार स्टाफ बचे हैं.
बाकी अकादमियों का भी हाल बुरा है. मगही अकादमी अब तक सिर्फ 22 पुस्तकें छपी हैं. पिछले साल एक कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ था. भोजपुरी अकादमी ने 38 किताबें छापी हैं. इन दोनों अकादमियों ने पिछले दो-तीन सालों से नयी किताबें प्रकाशित नहीं की हैं.
बांग्ला अकादमी ने कुल 15 किताबें छापी हैं, मगर पिछले 10 सालों में इसने एक भी किताब नहीं छापी है. दक्षिण भारतीय भाषा में सालों से कोई काम नहीं हो रहा, संस्कृत अकादमी की 12 किताबें छपी हैं, मगर 12 साल से कोई कमेटी ही नहीं है, इसलिए कोई काम नहीं हो रहा. इनमें से ज्यादातर अकादमियों के पास न पूर्णकालिक अध्यक्ष है, न निदेशक.
राजधानी में हिदीभाषा के उत्थान को लेकर दो संस्थाएं हैं. एक बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, दूसरी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद. इनमें से ग्रंथ अकादमी को किताबें छापने के लिए पैसे केंद्र सरकार से मिलते हैं और राष्ट्रभाषा परिषद को राज्य सरकार से. दोनों को पिछले साल पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए 20-20 लाख रुपये मिले.
ग्रंथ अकादमी ने 15 नयी किताबें छापीं और 15 किताबों का पुनर्मुद्रण किया, जबकि राष्ट्रभाषा परिषद ने उन पैसों का क्या किया, यह जानकारी देने के लिए वहां के लोग तैयार नहीं हैं. राष्ट्रभाषा परिषद के कर्मियों को सैलरी राज्य सरकार की ओर से मिलती है. शेष सभी अकादमियों को वेतन के लिए ग्रांट मिलता है. इन कर्मियों के वेतन में भी भारी विसंगतियां हैं, किसी को चतुर्थ वेतन आयोग का लाभ मिल रहा है तो किसी को पंचम वेतन का.
इस बीच उर्दू अकादमी की व्यवस्था बेहतर है. रोचक यह है कि इसे अल्पसंख्यक कल्याण विभाग के साथ संबद्ध कर दिया है, यह मानते हुए कि यह भाषा अल्पसंख्यकों की ही है. अकादमी का जोर नयी पुस्तकों के प्रकाशन पर कम है. वह अपनी बजट राशि नये-पुराने साहित्यकारों को पुरस्कृत और सम्मानित करने में खर्च करता है. पिछले साल अकादमी ने 1.51 लाख के दो, 1.01 लाख के तीन और 51 हजार के 20 अवार्ड बांटे और बुजुर्ग लेखकों को 21 हजार की राशि देकर सम्मानित किया. इसके अलावा यहां से एक पत्रिका का भी नियमित प्रकाशन होता है.
अकादमी/संस्थान ग्रांट पुस्तकें प्रकाशित(नयी/कुल) आयोजन
हिंदी ग्रंथ अकादमी 1.485 करोड़
+20 लाख 30/410 ……
राष्ट्रभाषा परिषद 26 लाख …../186 कुछ हुए हैं
मैथिली अकादमी 30 लाख 00/214 00
भोजपुरी अकादमी 1 करोड़ 00/38 00
मगही अकादमी 50 लाख 00/22 1 कवि गोष्ठी
अंगिका अकादमी 05 लाख 00/00 00
बांग्ला अकादमी 18 लाख 00/15 00
संस्कृत अकादमी 24.2 लाख 00/12 00
दक्षिण भारतीय भाषा 00 00 00
उर्दू अकादमी 2.25 करोड़ 00/60
मैगजीन छपती है, साहत्यिकारों को सम्मानित किया जाता है

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