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जब शेख गुलाब, शीतल व राजकुमार शुक्ल ने लिया संकल्प

भैरव लाल दास बंगाल विधान परिषद में मौलवी सैयद मोहम्मद फखरूद्दीन ने गोर्ले प्रतिवेदन को सार्वजनिक करने की मांग की, जिस पर सरकार के सचिव एफडब्ल्यू ड्यूक ने कहा कि सरकार की अनुमति मिलने के बाद ही इसे सार्वजनिक किया जायेगा. गोर्ले प्रतिवेदन से निलहों पर लगाम लगा और अधिकारियों के दंभ भी कम हुए. […]

भैरव लाल दास
बंगाल विधान परिषद में मौलवी सैयद मोहम्मद फखरूद्दीन ने गोर्ले प्रतिवेदन को सार्वजनिक करने की मांग की, जिस पर सरकार के सचिव एफडब्ल्यू ड्यूक ने कहा कि सरकार की अनुमति मिलने के बाद ही इसे सार्वजनिक किया जायेगा. गोर्ले प्रतिवेदन से निलहों पर लगाम लगा और अधिकारियों के दंभ भी कम हुए. 1909-10 में दार्जिलिंग एवं पटना में हुए निलहों के सम्मेलनों में लेफ्टिनेंट गवर्नर के अनुरोध पर प्रति बीघा तीन कट्ठे के बदले दो कट्ठे में नील की खेती कराने एवं दाम में साढ़े बारह प्रतिशत की वृद्धि किये जाने के निर्णय से चंपारण के विद्रोह में नरमी आयी.
बिहार प्रॉविन्सियल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सैयद अली इमाम और सचिव ब्रह्मदेव नारायण ने लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड बार्कर से अनुरोध किया कि किसानों पर चलाये जा रहे मुकदमे वापस लिए जायें. उदारता दिखाते हुए सरकार ने 50 से अधिक व्यक्तियों को जेल से छोड़ दिया.
इंगलैंड का राजा बनने के बाद जॉर्ज पंचम शिकार खेलने के लिए नेपाल जाने के क्रम में दिसंबर, 1911 में नरकटियागंज स्टेशन पहुंचे. अपनी फरियाद रखने लिए चंपारण के 15 हजार किसान वहां पहुंचे. जब राजा ने पूछा कि ये लोग क्या चाहते हैं तब उन्हें बताया गया कि सभी आपकी जय-जयकार कर रहे हैं.
6 जनवरी, 1912 को राजा को एक आवेदन भी भेजा गया, लेकिन इसे भी वापस कर दिया गया. एक अप्रैल, 1912 को अलग राज्य बनने के बाद बिहार के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर चार्ल्स बेली नवंबर, 1912 में सोनपुर मेला आये. निलहों ने उनकी खूब आवभगत की और यह भी जता दिया कि चंपारण में किसानों के साथ उनके बहुत मधुर संबंध हैं. ‘बिहारी’ अखबार ने सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा कि सच्चाई से आंख मूंद कर सरकार निलहों के प्रभाव में आ गयी है.
हालांकि, आलोचना के लिए अखबार को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. 13 मार्च, 1913 को बिहार विधान परिषद में बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद ने प्रश्न किया कि चंपारण के किसानों के कितने आवेदन अब तक सरकार को प्राप्त हुए हैं? मैकफर्सन ने अत्यंत ही गोल-मटोल सा जवाब दिया. उधर, कृत्रिम नील आने से चंपारण में नील की खेती कम होने लगी थी. 1911 में जहां 1,09,600 एकड़ में नील की खेती होती थी, जो 1912 में यह घट कर 84,000 एकड़ तक आ पहुंची. अपनी आमदनी में कमी होता देख निलहों ने ‘हरजा’, ‘तवान’ और ‘शरहवेशी’ के रूप में शोषण के नये तरीकों की खोज कर ली. 1913 में पटना उच्च न्यायालय का शिलान्यास करते हुए लॉर्ड हार्डिंग ने कह दिया कि उत्तर बिहार में निलहों एवं किसानों के बीच बहुत मधुर संबंध हैं.
बेलवा कोठी के मुरली भरहवा गांव के मध्यमवर्गीय किसान राजकुमार शुक्ल ने अपने घर के सामने की खेत में आलू बोया था और फसल बहुत अच्छी हुई थी. कोठी के मैनेजर एम्मन ने कारिंदों को भेज कर आधा आलू की मांग की. शुक्ल ने कहा कि घर और कोले की लगान माफ है, आलू नहीं देंगे. एम्मन को लगा कि यदि रैयत यह बात जान जायेंगे, तो मुश्किल होगी.
चूंकि पंचैती करने का अधिकार निलहों को ही था, सो पंचैती में एक रुपया दंड लगाया गया. शुक्ल नहीं माने. दोनों पक्षों में झगड़ा हुआ. शुक्ल का घर उजाड़ दिया गया. खेत में मछली मारने के नाम पर उन पर मुकदमा चला कर जेल भेज दिया गया. जेल से बाहर आकर शुक्ल ने प्रतिज्ञा की कि चंपारण से निलहों को भगा कर ही दम लेंगे. शेख गुलाब, शीतल राय और राजकुमार शुक्ल की तिकड़ी ने चंपारण संघर्ष को नेतृत्व किया.
शुक्ल की राजनीतिक चेतना सबसे अधिक थी क्योंकि केस मुकदमों के सिलसिले में वे बेतिया, मोतिहारी, मुजफ्फरपुर से लेकर पटना तक आते-जाते रहते थे. उन्होंने ब्रजकिशोर प्रसाद से घनिष्ठता बनायी जो उस समय बिहार प्रॉविन्सियल कांग्रेस के बड़े नेता एवं बिहार विधान परिषद के सदस्य भी थे. निलहों के विरुद्ध चलाये गये खूनी संघर्ष को शुक्ल ने राजनीतिक लड़ाई के रूप में तब्दील कर दिया. चंपारण के प्रथम स्नातक और बेतिया राज स्कूल के शिक्षक हरबंस सहाय, बेतिया में टाउन गुरु ट्रेनिंग स्कूल के शिक्षक पीर मुहम्मद मूनिस एवं पशुपति लाल और पिपरा कोठी के लोमराज सिंह शुक्ल की मदद कर रहे थे.

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