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ठप पड़ी है पुरातात्विक स्थलों पर खुदाई, सदियां लग जायेंगी इतिहास को बाहर आने में
पुष्यमित्र pushyamitra@prabhatkhabar.in ठप पड़ी है पुरातात्विक स्थलों पर खुदाई अगर आप महान मगध साम्राज्य और बुद्ध-महावीर की धरती होने के गौरव से ही संतुष्ट हैं तो आपको यह जानकर हैरानी होगी कि बिहार के इतिहास में अभी ढेर सारी पुरातात्विक जानकारियों का जुड़ना शेष है. मधुबनी जिले से बलिराजगढ़ में एक तीन हजार साल पुराना […]
पुष्यमित्र
pushyamitra@prabhatkhabar.in
ठप पड़ी है पुरातात्विक स्थलों पर खुदाई
अगर आप महान मगध साम्राज्य और बुद्ध-महावीर की धरती होने के गौरव से ही संतुष्ट हैं तो आपको यह जानकर हैरानी होगी कि बिहार के इतिहास में अभी ढेर सारी पुरातात्विक जानकारियों का जुड़ना शेष है. मधुबनी जिले से बलिराजगढ़ में एक तीन हजार साल पुराना शहर दबा है, तेल्हाड़ा में नालंदा से भी पुराना विश्वविद्यालय है, जिसे अभी धरती से बाहर आना है, औरंगाबाद के कुटुंबा में मध्य पाषाणकालीन सामग्री मिली है और पटना के बोर्ड ऑफिस के पास तीन हजार साल पुराने मृदभांड मिले हैं. मगर इन जगहों में उत्खनन का काम लगभग ठप है.
पटना : मधुबनी जिले के बलिराजगढ़ में दो सौ एकड़ का एक प्लॉट है, जिसे आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने 1938 से ही प्रोटेक्ट कर रखा है. माना जाता है कि इस प्लॉट के नीचे बहुत पुराना एक शहर बसा है, जो राजा बलि की राजधानी है. 1962 में वहां खुदाई शुरू हुई
जिसमें तीन हजार साल पुरानी सामग्री मिली. मगर एक साल की खुदाई के बाद वहां काम बंद हो गया. फिर 1972-75 के बीच बिहार सरकार की ओर से वहां खुदाई करायी गयी. उसके बाद जो खुदाई बंद हुई तो 2013 में महज एक साल के लिए एएसआइ ने वहां खुदाई की. अभी भी वहां का 90 फीसदी हिस्सा जमीन में दबा है. मगर एएसआइ का कहना है कि वहां खुदाई का काम पूरा हो चुका है. इस बीच एक संस्कृति प्रेमी सुनील कुमार कर्ण ने बलिराजगढ़ के मसले पर हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी, जिसके आधार पर 4 अप्रैल, 2016 को केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय को नोटिस जारी किया गया है. यह त्रासदीपूर्ण कहानी सिर्फ बलिराजगढ़ की नहीं है. सिर्फ एक ही साइट में ही चल रहा पुरातात्विक खनन का काम केपी जायसवाल संस्थान द्वारा कराये गये एक अध्ययन के मुताबिक पूरे बिहार में ऐसी 6500 साइटें हैं जो ऐतिहासिक महत्व की हैं, वहां खुदाई हो तो बिहार और भारत के इतिहास पर नये सिरे से रोशनी डाली जा सकती है.
मगर आपको यह जानकर हैरत होगी कि साल 2016-17 में इनमें से सिर्फ एक ही साइट तेल्हाड़ा में पुरातात्विक खनन का काम चल रहा है. वह भी पिछले साल का बचा हुआ काम ही है, नये उत्खनन की इजाजत वहां भी नहीं मिली है. पिछले वित्तीय वर्ष में जिन चार साइटों पर खुदाई हो रही थी, उनमें से तीन की खुदाई का काम इसलिए बंद कर दिया गया क्योंकि आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया उस रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं है, जो स्टेट ऑर्कियोलॉजी डिपार्टमेंट ने सबमिट किये हैं.
यह सूची तो उन पुरातात्विक स्थलों की है, जहां खुदाई जारी थी. इसके अलावा कई ऐसे स्थल हैं, जहां एएसआइ को तत्काल कदम उठाकर खुदाई करनी चाहिये थी. जैसे हाल ही में बिहार माध्यमिक परीक्षा बोर्ड के दफ्तर के पास तीन हजार साल पुराने मृदभांड मिले थे. मधुबनी एक ऐसा जिला है, जहां महीने में एक बार किसी पुरानी मूर्ति के मिलने की खबर आ ही जाती है. मनरेगा तालाबों की खुदाई में भी कई मूर्तियां मिली हैं.
वहां अंधराठाढ़ी गांव के पास एक ऐसा स्तूप मिला है, जिसकी ईटें लोग उठा कर ले जाते हैं. भागलपुर के कर्णगढ़ का इतिहास आज भी मिट्टी में दबा है. यहां तक कि नालंदा में जहां एएसआइ का इतना बड़ा काम है, वहां भी कई साइट उपेक्षित पड़े हैं.
बिहार के कई बुद्धिजीवियों ने जनवरी में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एक पत्र लिखा था और उस पत्र में उनलोगों ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा बिहार के प्रति भेदभावपूर्ण नीति अपनाने का आरोप लगाया था. उनका आरोप था कि एएसआइ न खुद खुदाई करता है और न ही डॉयरेक्टोरेट ऑफ स्टेट ऑर्कियोलॉजी को खुदाई करने देता है. पुरातात्विक नजरिये से बिहार का जो महत्व है उस लिहाज से यहां बड़े पैमाने पर खुदाई होनी चाहिए थी.
एएसआइ ने बिहार में अपना क्षेत्रीय कार्यालय भी खोल रखा है. मधुबनी के बलिराजगढ़ का उत्खनन कार्य उसी के जिम्मे है. एएसआइ ने दरभंगा के प्राचीन भवनों का सर्वेक्षण कर उन्हें भी संरक्षित भवनों की सूची में जोड़ा था. संरक्षित सूची में शामिल होने के बावजूद इन भवनों को देखने वाला कोई नहीं है. हालांकि एएसआइ की ओर से कहा जा रहा है कि वह इस रुक्मिणी स्थान, नालंदा में उत्खनन कार्य करा रहा है. वैसे यह कार्य भी पिछले साल का ही एक्सटेंशन हैं. कोई नया परमिशन नहीं है.
हालांकि डॉयरेक्टोरेट ऑफ स्टेट ऑर्कियोलॉजी के निदेशक अतुल कुमार वर्मा इस स्थिति से बहुत चिंतित नजर नहीं आते. उनका मानना है कि बरसात के बाद शेष तीन साइटों पर खनन की इजाजत भी मिल जाने की उम्मीद है. वे कहते हैं कि एएसआइ का जोर खुदाई से अधिक बेहतर रिपोर्टिंग पर रहता है. रिपोर्टिंग नहीं होने की वजह से दिक्कतें आती हैं.
वे कहते हैं, हम चाह भी लें तो बिहार में एक साथ कई जगहों पर उत्खनन नहीं करा सकते, क्योंकि हमारे पास लोगों की बहुत कमी है. हम कोशिश करते हैं कि सीमित संसाधनों में बेहतर काम कर सकें, ताकि जितना काम हो उसका नतीजा निकले. इसलिए हमलोग काम को अधिक फैलाते नहीं हैं.
मगर सच यही है बिहार में जिस तरह की साइटें हैं, अगर उन पर इसी रफ्तार से उत्खनन होता रहा तो राजा बलि का किला हो या तेल्हाड़ा का विश्वविद्यालय उन्हें सही शेप में देखने में भी दशकों का वक्त लग सकता है.
चेचड़ में इजाजत नहीं : वैशाली जिले में स्थित चेचड़ बौद्धकालीन स्तूप के लिए जाना जाता है. कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध अक्सर यहां विश्राम किया करते थे. यहां भी साल 2015-16 में उत्खनन हुआ था, इस साल एएसआइ ने रिपोर्ट नहीं मिलने की बात कहते हुए इजाजत नहीं दी है.
बलिराजगढ़: मधुबनी जिले में स्थित बलिराजगढ़ के नीचे किसी बड़े शहर के दबे होने की संभावना है. वहां से खुदाई में 3000 साल पुराने अवशेष मिले हैं, हालांकि विशेषज्ञ कहते हैं कि वहां राजा जनक की राजधानी और सीता की जन्मस्थली हो सकती है और ठीक से खुदाई हो तो ऐसे अवशेष सामने आ सकते हैं.
तेल्हाड़ा : नालंदा जिले में स्थित तेल्हाड़ा में एक प्राचीन विश्वविद्यालय के संकेत मिले हैं. विशेषज्ञ इस विश्वविद्यालय को नालंदा विश्वविद्यालय से भी प्राचीन बताते हैं. पिछले साल यहां उत्खनन कार्य हुआ था
चौसागढ़ : बक्सर जिले के चौसागढ़ में एक प्राचीन स्तूप मिला है और कांसे की जैन मुनियों की प्रतिमा मिली हैं. ये अवशेष मौर्यकालीन बताये जाते हैं. कुछ शुंगकालीन और गुप्तकालीन भी हैं.
कुटुंबा : औरंगाबाद का यह स्थल काफी महत्वपूर्ण है. यह बिहार का एकमात्र ऐसा स्पॉट है, जहां से मध्यपाषाणकालीन हथियार मिले हैं. पिछले साल राज्य सरकार के निदेशालय की ओर से यहां भी उत्खनन हुआ था. इस साल एएसआइ ने इजाजत नहीं दी है.
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