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सिनेमेटिक लिबर्टी के मायने

सिनेमेटिक लिबर्टी के मायनेविनोद अनुपमसंजय लीला भंसाली की सबसे भव्य और खूबसूरत फिल्म मानी जा सकती है, ‘बाजीराव मस्तानी’. सिनेमाई व्याकरण की दृष्टि से देखें तो इसकी पटकथा में, दृश्य संयोजन में, संगीत में, भाषा में, वस्त्र विन्यास में कमी निकाल पाना आसान नहीं. भारतीय इतिहास के एक खालखंड को भंसाली उठाते हैं और और […]

सिनेमेटिक लिबर्टी के मायनेविनोद अनुपमसंजय लीला भंसाली की सबसे भव्य और खूबसूरत फिल्म मानी जा सकती है, ‘बाजीराव मस्तानी’. सिनेमाई व्याकरण की दृष्टि से देखें तो इसकी पटकथा में, दृश्य संयोजन में, संगीत में, भाषा में, वस्त्र विन्यास में कमी निकाल पाना आसान नहीं. भारतीय इतिहास के एक खालखंड को भंसाली उठाते हैं और और उससे पूरी कुशलता से दर्शकों को जोड़ने की कोशिश करते हैं. युद्ध के दृश्य विलक्षण है, जहां दर्शक अपने आपको युद्ध के मैदान में महसूस करता है. बाजीराव के महलों के सेट ही भव्य नहीं बने हैं, भंसाली उसे पूरी भव्यता और सार्थकता से प्रस्तुत भी करते हैं. भंसाली के सेटों की खासियत होती है कि वे चाहे कितने भी भव्य दिखें, कहानी पर भारी नहीं पड़ते, यहां भी महलों की भव्यता कहानी के लिए वातावरण तैयार करने में सहयक होती है. रंगों का इस्तेमाल भंसाली की खासियत रही है, वह यहां भी दिखती है. युद्ध के दृश्यों से लेकर प्रेम दृश्यों तक कहीं भी वे दर्शक को बहुत सुकून नहीं देते हैं, क्योंकि उन्हें एक बड़े दुख के लिए दर्शकों को तैयार करना है. निश्चित रुप से मेकिंग या कहे तकनीक की दृष्टि से ‘बाजीराव मस्तानी’ हिंदी सिनेमा की एक बड़ी फिल्म में गिनी जाती रहेगी.सवाल है सिनेमाई व्याकरण का निर्वाह क्या ऐतिहासिक तथ्यों से खिलवाड़ की भी हमें छूट प्रदान कर देता है. कुछ ही दिन पहले हमने ‘दशरथ मांझी’ को भी परदे पर देखा था. सिनेमाई लिबर्टी के नाम पर ‘नाच गाने सीन सिनहरी से भरपूर’ एक फीचर फिल्म तो हमें मिली, नहीं मिले तो दशरथ मांझी और उनका संघर्ष. ‘मुगले आजम’ हो,’जोधा अकबर’ हो, या कोई भी ऐसी फिल्म इस तरह की छूट ली जाती रही है, लेकिन क्या इसकी सीमा नहीं होनी चाहिए? क्या यह लिबर्टी वहीं तक सह्य नहीं लगती, जहां तक मूल व्यक्तित्व खंडित या बाधित न होता हो. लिबर्टी मिल्खा सिंह में भी ली गई थी, लेकिन वह मिल्खा के व्यक्तित्व के विपरीत नहीं जाती थी. आज जब ‘बाजीराव मस्तानी’ पर सवाल उठ रहे हैं और फिल्म का विरोध हो रहा है तो इसलिए कि इस वेलमेड फिल्म में अपनी कहानी के निर्वहन के लिए भंसाली ने ऐतिहासिक तथ्यों से मुंह चुराने की कोशिश की है.निश्चित रुप से किसी भी कारण से किसी भी कृति का विरोध सही नहीं माना जा सकता. कोई जरूरी नहीं कि ‘बाजीराव मस्तानी’ को इतिहास के रूप में ही स्वीकार करें, एक किंवदंति के रुप में स्वीकार करते हुए एक अच्छी फिल्म देखने का तो सुख उठा ही सकते हैं.

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