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आओ, इस बार कुछ हट कर दीवाली मनाएं

आओ, इस बार कुछ हट कर दीवाली मनाएंदीवाली आते ही हम अपने बड़ों से, दोस्तों व रिश्तेदारों से तोहफों की उम्मीद करने लगते हैं. हमारा दिल नये-नये कपड़े, जूतों, पटाखों, मिठाइयों व व्यंजनों के लिए मचल उठता है, लेकिन ऐसे भी कुछ घर हैं, संस्थाएं हैं, जहां के बच्चे दीवाली की इन खुशियों से वंचित […]

आओ, इस बार कुछ हट कर दीवाली मनाएंदीवाली आते ही हम अपने बड़ों से, दोस्तों व रिश्तेदारों से तोहफों की उम्मीद करने लगते हैं. हमारा दिल नये-नये कपड़े, जूतों, पटाखों, मिठाइयों व व्यंजनों के लिए मचल उठता है, लेकिन ऐसे भी कुछ घर हैं, संस्थाएं हैं, जहां के बच्चे दीवाली की इन खुशियों से वंचित रह जाते हैं. न उनके घर से मिठाई की खूशबू आती है और न पटाखों की आवाज. न वे नये कपड़े पहनते हैं और न ही उन्हें तोहफे में खिलौने मिलते हैं. आज उन्हें जरूरत है लोगों की मदद की. उन्हें इंतजार हैं ऐसे लोगों का, जो उन्हें दीवाली पर कुछ तोहफे दे जाएं, उनके चेहरे पर मुस्कान दे जाएं. लाइफ रिपोर्टर.पटनाचलो, जरा हट कर दीवाली मनाएं इस बारअपनी मुंडेर पर तो दीया जलाते हैं हर बारमगर जिन्होंने कभी नहीं देखी है रोशनीक्यों न उनके घरों में चिराग जलाएं इस बारचलो, जरा हट कर दीवाली मनाएं इस बारअपने घरों में तो रोज बनती है मिठाईमगर जो भूखे ही सो रहे हैं कई दिनों सेक्यों न उनको भी एक निवाला खिलाएं इस बारचलो, जरा हट कर दीवाली मनाएं इस बारबड़े-बड़े लोगों से तो मिलते हैं हर रोजमगर जिनको वर्षों से छुआ नहीं किसी नेक्यों न उस शबरी से राम बन कर हम ही मिल आयें इस बार चलो, जरा हट कर दीवाली मनाएं इस बार… शंकर लाल कुमावत ने यह बेहतरीन कविता लिखी है, जो न केवल हमारे भीतर छिपे संवेदनशील इनसान को जगाती है, बल्कि हमें जागरूक करते हुए यह कहती है कि दूसरों की दीवाली रोशन करो. आज जरूरत है कि इस कविता के सार को हम समझें और दीवाली पर न केवल अपने घरों में दीये जलाएं, बल्कि उन घरों को भी रौशन कर दें, जो सालों से अंधेरे में छिपे पड़े हैं. शहर में कुछ लोग ऐसे हैं जो दीवाली, रक्षा बंधन, होली जैसे त्योहारों पर गरीब बच्चों की संस्थाओं में जाते हैं और उन्हें जरूरत का सामान देते हैं, लेकिन अभी भी इनकी संख्या काफी कम है. 150-200 बच्चों की संख्या वाली संस्थाओं में जब कम मात्रा में सामान पहुंचता है, तो कई बच्चों को मन मारना पड़ता है. इसलिए लोगों को दिल बड़ा करना चाहिए. अपने साथ-साथ उनके घर के दीप भी जलाना चाहिए, जिनके मन में अंधेरा है. उन्हें दीवाली की रौशनी तो दिखायी देती है, लेकिन उन्हें दीवाली के मायने नहीं मालूम होते. खेलते तो वो बच्चे भी हैं, लेकिन उनके साथ खेलने वाला अपना परिवार नहीं होता. ऐसे में दीवाली में इन गरीब बच्चों को किसी का साथ मिल जाये, तो उनकी खुशी दोगुनी हो जाती है. इसलिए इस दीवाली हम कई ऐसे संस्थानों में गये, जहां बड़ी संख्या में बच्चे रहते हैं, जिन्हें भी दीवाली के साथ अपनों का इंतजार होता है, जो उनकी दीवाली की खुशियाें में चार चांद लगा दे. इसलिए दीवाली में जो लोग अपनी खुशियों का थोड़ा समय इन बच्चों के साथ बांट सकते हैं, उनके लिए रास्ता खुला हुआ है. इन बच्चों के साथ वे भी खुशियों का दीप जला सकते हैं.ये बच्चे भी बना रहे घरौंदा और रंगोलीसभी बच्चे एक समान होते हैं. सभी के अंदर भावनाएं होती हैं. सभी का हृदय कोमल होता है. इसलिए अनाथ बच्चों के भी सपने होते हैं. उन्हें भी त्योहारों में खेलने-कूदने का मन करता है. ऐसे में शहर की कई ऐसी संस्थाएं हैं, जो बच्चों की खुशियां अपने साथ बांटती हैैं. संस्थान के सभी मेंबर्स बच्चों के साथ त्योहार भी मनाते हैं. इस बारे में अपना घर, नई धरती, बचपन, बचपन बचाव जैसे कई संस्थानों में लोगों ने बताया कि इन बच्चों को हम कभी अकेला नहीं छोड़ते उन्हें कभी एहसास नहीं होने देते कि उनका घर नहीं है. उनका अपना परिवार नहीं है. उनके अपने दोस्त नहीं है. क्योंकि उन्हें सभी संस्थानों में परिवार की तरह रखा जाता है. ऐसे में दीवाली आने से पहले ऐसे संस्थानों में ये बच्चे भी रंगोली और घरौंदा बनाने की तैयारी कर रहे हैं. उनकी आंखों में भी दीवाली मनाने का उत्साह देखने को मिल रहा है.उन्हें दिया जाता है त्योहारों का एहसासदुर्गापूजा हो या रक्षा बंधन या फिर दीवाली जैसा त्योहार, शहर के सभी संस्थानों में ऐसे बच्चों को त्योहारों का एहसास दिलाया जाता है. यहां ऐसे बच्चे रहते हैं, जिनका घर रहते हुए वे बेघर हैं. साथ ही कई बच्चे अपने घर से भटक जा चुके होते हैं. वहीं कई बच्चे स्लम एरिया के रहते हैं, जो गरीबी की वजह से अपनी जिंदगी जीने की जगह सिर्फ काट रहे होते हैं. ऐसे संस्थानों में इन बच्चों को हर दिन खान-पान और पढ़ने की सुविधा के साथ त्योहारों का भी एहसास दिलाया जाता है. संस्थानों का कहना है कि हम अपनी तरफ से बच्चों को सुविधा देते हैं, लेकिन उन्हें परिवार की खुशी नहीं मिल पाती. यहां कई बच्चे ऐसे भी रहते हैं, जिन्हें त्योहारों का एहसास देने के बावजूद भी उनकी आंखों के आंसू नहीं रुक पाते. वे अपने परिवार को मिस करते हैं. उन्हें किसी की कमी महसूस होती है. इसलिए वैसे बच्चे जल्दी भावुक हो जाते हैं. ऐसे में उन्हें शहर के आम लोगों से परिवार का एहसास मिल जाये, तो शायद उनकी आंखों में आंसुओं की बजाय खुशियां वापस लौट जाये.बच्चों का दे सकते हैं साथजरूरी नहीं कि बच्चों को कोई चीज दे कर उन्हें प्यार किया जा सके. संस्थान में बच्चों को जरूरत का सामान दिया जाता है, लेकिन बच्चों की असली खुशी उनसे बात करने में मिलती है. उनके साथ समय बिताने में होती है. उनके साथ खेलने में होती है. इच्छाओं की सीमा नहीं होती. इसलिए दीवाली सिर्फ खिलौने और पटाखे दे कर नहीं, प्यार दे कर भी होता है. उन्हें हाल में दुर्गापूजा में शहर में घूमाया था. दीवाली में भी उन्हें जरूरत का सामान दिया जायेगा, लेकिन कोई व्यक्ति अपनी खुशियां इन बच्चों के साथ बांट सकता है, तो वे आ सकते हैं. लेकिन, जो लोग आयें, सभी बच्चों के साथ समय देें. क्योंकि यहां 6 से 13 साल की लड़कियां रहती हैं, ऐसे में किसी दो-चार बच्चों को कोई चीज या किसी का प्यार मिल जाये, तो बाकी को बुरा लगता हैै. इसलिए हम सभी बच्चों को एक समान देखते हैं.नंदिता बनर्जी, सचिव , नई धरतीमोबाइल नंबर- 9431457700हम बच्चों को सभी तरह की सुविधा देते हैैं. उन्हें किसी तरह की कमी नहीं महसूस होने देते. जब त्योहार आता है, तो बच्चों को पकवान के साथ स्पेशल खाना खिलाते हैं, ताकि उन्हें घर की कमी महसूस न हो. इतनी सारी चीजें मिलने के बावजूद कई बच्चों को हमेशा अपने घर की याद आती है. वैसे बच्चे भावुक होते हैं. इसलिए उन्हें अपनों की कमी खलती होगी. अभी त्योहारों का मौसम है, इसलिए बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाता है. अभी हाल में दुर्गापूजा के मौके पर बच्चों को बस से दुर्गापूजा घूमाया गया था. अभी दीवाली आ रही है. उनके साथ दीवाली मनायी जायेगी. ऐसे में कोई भी इन बच्चों के साथ अपनी दीवाली मना सकता हैै, लेकिन वे कुछ खाने-पीने की चीजें नहीं ला सकते. वे पैसा दे सकते हैं. उन्हें यहां से बना कर बच्चों को खिलाना होगा. कपड़े और खिलौने देने की बात हैै, तो सारे बच्चे को देने होंगे. क्योंकि सभी बच्चे एक समान होते हैं. ऐसे में हम उनमें भेद-भाव नहीं कर सकते. हमें सब का ख्याल रखना पड़ता है.मंजू कुमारी शर्मा, चेयरपर्सन, चाइल्ड वेलफेयर कमेटीमोबाइल नंबर- 8002711134क्या कहते हैं बच्चेमैं दीवाली में घरौंदा बनाती हूं. घर की सफाई की जाती है. इस दिन लोग खुशियां मनाते हैं. मैं भी दीवाली में खुशियां मनाना चाहती हूं. मुझे भी दीया जलाना है. मुझे भी पटाखे फोड़ने हैं. मैं भी अपने परिवार के साथ इस खुशी में शामिल होना चाहती हूं, मैं यहां सभी सहेलियों के साथ खेलती हूं. दीवाली इन्हीं के साथ मनाना हैै.करीना कुमारी, उम्र-8 सालदीवाली के मौके पर लोग दिया जलाते हैं. मुझे भी दिया जलाने में मजा आता है. मेरेे मम्मी-पापा मेरेे साथ नहीं रहते हैं. मैं यहां अपनी सहेलियों के साथ रहती हूं. मैं इन्हीं के साथ हर दिन खेलती हूं. इसलिए दीवाली भी इन्हीं के साथ मनानी है. दीवाली के लिए घरौंदा बनाने वाली हूं. हमारा परिवार यहां रहने वाले लोग हैं, जो हमेशा साथ देते हैैं.रीति कुमारी, उम्र- 9 सालमैं पढ़ाई करती हूं. मुझे जोड़-घटाव आता है. अभी दीवाली आनेवाली है. मिठाइयां बनती हैं. इस समय मिठाइयां खाने को मिलती हैं, लेकिन मुझे मम्मी के हाथ से मिठाइयां नहीं मिल पाती. मैं भी पटाखा छोड़ना चाहती हूं. नये कपड़े पहन कर खुशियां मनाना चाहती हूं. मैं भी दीवाली धूमधाम से मनाना चाहती हूं.रीतू कुमारी, उम्र-6 सालउपेंद्र को मिला मां-बाप का साथउपेंद्र ठीक से बोल नहीं पाता, क्योंकि उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है. उसे न तो अपना नाम और न ही अपने गांव का नाम याद रहता है. ऐसे में मां-बाप का नाम भी सही से नहीं बोल पाता. लेकिन कहते हैं, जहां चाह है वहां राह है. पिछले चार महीने से गुमशुदा उपेंद्र को उसका परिवार मिल गया. दीवाली के अवसर पर लोग अपने बच्चों के लिए शॉपिंग कर रहे हैं. त्योहार के इस मौके पर किसी का खोया हुआ बच्चा उसके आंचल में आ जाता है, तो उसकी खुशी को हम अपने शब्दों में बयान नहीं कर सकते हैं. कुछ ऐसा ही देखने को मिला ‘अपना घर’ संस्थान में, जहां शुक्रवार को चार महीनों से खोये उपेेंद्र की उसके मां-बाप से मुलाकात होती हैै. इस बारे में सस्थान के सुप्रिंटेंडेंट रवि शंकर कहते हैैं कि उपेंद्र घर से भटक गया था. वह मानसिक रूप से कमजोर हैै. वह ठीक से अपने पैरेंट्स का नाम नहीं ले पाता था. ऐसे में उसे अपना घर का साथ मिला. वह किसी तरह इस संस्थान में आ पहुंचा. उसके कई तरह का नाम ले कर पूछा जाता था कि वह किसका बेटा है. पटना के कई एरिया में ले जा कर पूछा जाता था कि वह किस जगह का रहने वाला है, लेकिन ठीक से नहीं बता पाता था. एक बार उसके मुंह से शेरपुर निकल आया. हमने गुगल में पता किया, तो शेरपुर मनेर प्रखंड में पड़ता है. इसके बाद हमने वहां के लोगों से पता किया. पता चला कि इसका गांव खासपुर पंचायत में है. हम लोग इस पंचायत के मुखिया बिंदा सिंह से इस बच्चे के बारे में पूछे. करीब तीन महीनों में इसकी सही पहचान हो पायी. आखिरकार दीवाली के मौके पर उपेंद्र को उसका परिवार मिल गया, जिसे देख कर उसके खुशी की आंसू निकल रहे हैं. उपेंद्र को घर जाते देख संस्थान के सभी लोग काफी खुश हैं.

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