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उम्मीदवारों पर केंद्रित हो गयी है वोटरों की निगाहें
गिरींद्र नाथ झा गांव-घर और शहर के बाजारों में घुमते हुए अब लग रहा है कि लोगबाग की बतकही गंभीर होती जा रही है. सीमांचल में चुनाव की तैयारी जोरों पर है. नामांकन की प्रक्रि या तेज हो गयी है. ऐसे में मतदाताओं की निगाहें भी अब उम्मीदवारों पर केंद्रित होने लगी है. अररिया और […]
गिरींद्र नाथ झा
गांव-घर और शहर के बाजारों में घुमते हुए अब लग रहा है कि लोगबाग की बतकही गंभीर होती जा रही है. सीमांचल में चुनाव की तैयारी जोरों पर है. नामांकन की प्रक्रि या तेज हो गयी है. ऐसे में मतदाताओं की निगाहें भी अब उम्मीदवारों पर केंद्रित होने लगी है.
अररिया और किशनगंज के ग्रामीण इलाकों में घुमते हुए लगा कि पहले चरण के मतदान के बाद लोगबाग अब मुखर होने लगे हैं.
अररिया के रामपुर गांव में एक बुजुर्ग मोहम्मद अली का मानना हैं कि नीतीश कुमार की लोकप्रियता कम नहीं हुई है. उनका तर्क था कि आम तौर पर दस साल की सत्ता के बाद सरकार के प्रति विरोधी माहौल बनता है. मुख्यमंत्री के खिलाफ नाराजगी, भ्रष्टाचार व बदनामी वाला गुस्सा होता है. पर बिहार के लोगों में नीतीश के प्रति उलटे प्यार और भाईचारा है.
यहीं एक दुकानदार रमण बताते हैं कि नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी ने अहंकारी और जीतनराम मांझी ने दलित विरोधी भले करार दिया हो लेकिन उसका जनता में खास असर नहीं हुआ. वहीं पास में ही एक महादलित टोले में जब हम पहुंचे तो वहां कुछ और ही बतकही सुनाई दी. टोले के रामजी ऋ षिदेव का मानना है कि नितीश के कई रूप हैं. उन्होंने हमें अधिकार दिया लेकिन लालू यादव के साथ जा कर उन्होंने ठीक नहीं किया.
इन लोगों की बातें सुनकर लगा कि अब वोटर राजनीति को करीब से महसूस करने की कोशिश करने लगा है. दिल्ली में अपने पत्रकार मित्र को जब इनकी बातें सुनाई तो उन्होंने बताया कि शायद यही बात महागंठबंधन को वोट न मिल सकने का भाजपा का आधार तर्क है. इसी कारण एनडीए ने लालू यादव के जंगल राज को प्रमुख मुद्दा बनाया है. हालांकि मुद्दा तो यहां जाति का उलझा गणित ही है.
अररिया जिला में एक इलाका है- भाग मोहब्बत. चमचमाती सडक के किनारे यह इलाका है. हम अपनी बतकही के लिए यहां कुछ देर रुके. चाय की दूकान पर कई लोग बैठे थे. सब चुनाव को लेकर बातचीत में मशगूल थे. कोई कह रहा था कि अतिपिछड़ी जातियां ही सत्ता परिवर्तन की कारण बनेंगी, जिसमें निषाद, मछुआरा समाज की सबसे खास भूमिका रहेगी.
इनकी बातों को सुनकर मुङो लगा कि शायद ये टेलीविजन चैनलों की बहसों से प्रभावित हैं. चैनलों पर जो बहस हो रहे हैं लोग उस पर ध्यान देने लगे हैं. दरअसल जाति का गणित बताता है कि अतिपिछड़ी जाति की आबादी 14 प्रतिशत से अधिक है . यात्र के क्र म में हम डाकबंगला चौराहा पर रु कते हैं.
यहां ढेर सारे टेम्पू लगे थे. हमने टेम्पू चालकों से बातचीत शुरू की. बातचीत में अरविन्द नाम के एक युवा ने बताया कि उसने ग्रेजुएशन किया है लेकिन नौकरी नहीं मिली. उसने इसके लिए जाति को जिम्मेदार बताया. दरअसल यहां बातचीत में पता चला कि मतदाता दो खेमे में आमने-सामने है. वजह मनोदशा और मनोविज्ञान है. इसकी जड़ एक खौफ और चिंता है. पेशे से शिक्षक रमेश बताते हैं कि सवर्ण सोच रहे हैं कि लालू यादव- नीतीश कुमार का राज आया तो सब बरबाद होगा.
वहीं अतिपिछडी जाति इस खौफ में हैं कि भाजपा आई तो उनका मंडल राज ढह जाएगा. भाजपा सरकार में उनकी वैसी नहीं चलेगी जैसी 25 साल से चल रही है.
चुनावी माहौल में यह बात करना बेकार है कि खौफ की इस मनोदशा को लालू प्रसाद यादव ने उभारा या फिर मोहन भागवत के बयान से यह पैदा हुआ. विवाद अभी चलता रहेगा चुनाव भर. बाद बांकी जो है सो तो हइये है.
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