शैबाल गुप्ता
सदस्य सचिव, आद्री
इस काम के लिए लालू प्रसाद अपने ठेठ गंवई अंदाज का इस्तेमाल करते थे, वहीं नीतीश कुमार ने राज्य की मशीनरी का इस्तेमाल सामाजिक सद्भाव बनाये रखने के लिए किया. बिहार में अब सामाजिक न्याय का क्षेत्र बहुत मजबूत हो गया है और इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले 25 वर्षो में अभिव्यक्ति को स्वर देने के मामले में बिहार में मूलभूत बदलाव हुए हैं.
सामंती संस्थाएं पूरी तरह से ध्वस्त तो नहीं हुई हैं, लेकिन कमजोर जरूर हो गयी हैं. कुछ मायनों में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाने में एक-दूसरे के पूरक ही है. लालू प्रसाद ने पिछड़ों को आवाज दी, वहीं नीतीश कुमार ने पंचायती राज संस्थाओं में सकारात्मक भेदभाव की नीति अपनाकर उन्हें गवर्नेंस की मुख्यधारा में लाया. 50 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए, 20 फीसदी अति पिछड़ों (एनेक्सचर 1) और दलितों के लिए 10 फीसदी सीटें आरक्षित कर सत्ता के निचले केंद्रों पर सामंती वर्ग के प्रभुत्व को उन्होंने बहुत कमजोर कर दिया.
यह काम लालू प्रसाद भी अपने शासनकाल में नहीं कर पाये थे. पहले लालू प्रसाद और बाद में नीतीश कुमार के प्रयासों के बावजूद सामाजिक न्याय के आधार के नहीं बढ़ने की मुख्य वजह यह है कि बिहार में भूमि सुधार के लिए उचित कदम नहीं उठाये गये. बिना भूमि सुधार के भारत का कोई भी राज्य आर्थिक रूप से आगे नहीं बढ़ पाया है.
भूमि सुधार पर डी बंद्योपाध्याय कमेटी (जिसका गठन नीतीश कुमार ने ही किया था) की रिपोर्ट, को लागू किया जाना चाहिए. सिर्फ भूमि सुधार ही नहीं, लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के बाद रणवीर सेना की ज्यादतियों की जांच के लिए बनी अमीर दास आयोग को ही खत्म कर दिया गया. जनसंहारों के दोषियों को सजा नहीं हो सकी. नीतीश कुमार के 10 वषों के शासनकाल में, करीब 90 हजार लोगों को आरोपित बनाया गया, लेकिन नरसंहारों (बाथे, बथानीटोला और शंकर बिगहा आदि) के ज्यादातर अभियुक्त ऊपरी अदालतों से बरी होते गये.
ऊंची जाति के कुछ लोगों को छोड़कर सामाजिक हिंसा में मारे गये ज्यादातर लोग पिछड़ी जातियों के थे. पंचायती राज संस्थाओं में सकारात्मक भेदभाव की नीति पिछड़ी जातियों (खासकर अति पिछड़ा और दलितों) के पक्ष में उठाया गया ऐतिहासिक कदम था, लेकिन उनकी आर्थिक प्रगति तभी संभव थी, जब भूमि सुधार भी लागू किया गया होता. पंचायती राज सुधार एवं पंचायतों या विधायिका में सीट दे देने भर से 114 पिछड़ी जातियों (एनेक्सचर 1) और दलितों के आत्मविश्वास को लंबे समय तक के लिए नहीं बचाया जा सकता है. पंचायती राज आरक्षण की अपनी सीमाएं हैं और भूमि सुधार से होने वाले समेकित विकास का स्थान वह नहीं ले सकती है.
सामाजिक न्याय के आंदोलन के कमजोर पड़ने के पीछे एक कारण है-उसके नेताओं का चुनावी लोकप्रियता की दौड़ में अपने आपको शामिल कर लेना. जबकि यह काम उन्हें विचारधारा के बल पर आंदोलन को आगे बढ़ाने की कीमत पर करना था. चुनावी लोकप्रियता राजनीतिक दलों के ‘शक्ति या इच्छापूíतकर्ता एवं प्रदायी’ – स्वरूप में इर्दगिर्द घूमती है, न कि उनके ‘सशक्त बनाने वाली’ स्वरूप के इर्द-गिर्द.
उदाहरण स्वरूप, निषाद समुदाय के स्वघोषित नेता मुकेश सहनी का यह फैसला सामने है, जिसमें उन्होंने महागंठबंधन को छोड़कर राजग को वोट देने की अपील की है. नीतीश सरकार ने निषाद समुदाय को हाल ही में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया. यह इस समुदाय को उपकृत करने वाला फैसला है.
इसके बावजूद सहनी को लगता है कि राजग से निषाद समुदाय को कुछ और मिलेगा. जब राजनीतिक पार्टियां प्रोवाइडर का काम करेंगी, सशक्त बनाने का नहीं, तब इसी तरह राजनीति में गिरावट आयेगी. वैचारिक संघर्ष के मोर्चे पर फेल होने के अलावा सामाजिक न्याय के नेताओं की छवि पार्टी में भाई-भतीजावाद की वजह से भी धूमिल हुई है. किसी सामाजिक या राजनीतिक लड़ाई को आगे बढ़ाने में नैतिकता की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है.
कम सफलता मिलने के बावजूद बिहार की तुलना गुजरात से की जा सकती है, जिसे विकास का ‘पोस्टर स्टेट’ कहा जाता है. यह विडंबना ही है कि किसी मुख्यमंत्री या राजनीतिक पार्टी का स्थायित्व या आíथक विकास सामाजिक सद्भाव की गारंटी नहीं हो सकता है.
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, गुजरात में पटीदार समुदाय की ओर से हार्दकि पटेल का आंदोलन. यह समुदाय गुजरात में सबसे समृद्ध समुदायों में से एक है. हार्दकि पटेल का आंदोलन पूंजी आधारित विकास की सीमा भी बताता है, जिसमें समेकित विकास का स्थान नहीं होता है.
पिछले दस वर्षो में बिहार भी विकास का गवाह बना है, समेकित विकास के मामले में इसका ट्रैक रिकॉर्ड तुलनात्मक रूप से दूसरे राज्यों से बहुत अच्छा रहा है. भारत में नयी आíथक नीति के लागू होने के बाद आíथक विकास दर ने जबरदस्त छलांग लगायी, लेकिन इस विकास का सबसे दुखद पहलू यह था कि समाज में दोहरापन बढ़ा. कुछ राज्यों में गरीबी और पिछड़ापन बढ़ा, तो कुछ प्रदेशों का विकास बहुत तेज गति से हुआ.
विकास के दो राह : एक, बिहार जो कि अन्य राज्यों से घिरा है और दूसरा, गुजरात जो समुद्र के किनारे है, का दोनों इलाकों के आíथक विकास की पृष्ठभूमि में मूल्यांकन करने की जरूरत है. गुजरात में नरेंद्र मोदी की सफलता एक ऐसी नीति के सतत आगे बढ़ते रहने की सफलता है, जो पिछले दो सौ वर्षो से वहां थी. यह स्वीकार किया जा सकता है कि गुजरात सबसे सफल राज्य है और उसके विकास मॉडल को देश-दुनिया में प्रचारित किया जाता है.
कुछ लोग मानते हैं कि भारत के विकास के लिए गुजरातीकरण ही एकमात्र रास्ता है, लेकिन यह भी आश्चर्य की बात है कि यही लोग यह भी मानते हैं कि गुजरात में विकास हाल के वर्षो में हुआ है और यह सिर्फ एक आदमी की बदौलत हुआ है.
लोगों की इस सोच में बहुत खामियां हैं. यह सोच गुजरात की ऐतिहासिक और सामाजिक सच्चई को नजरंदाज करती है. इसके अतिरिक्त, संस्थागत मुद्दे ही अंतिम रूप से राज्य के सामाजिक मुद्दों एवं प्राथमिकताओं को तय करते हैं. वैसे राज्य जहां परमानेंट सेटलमेंट लागू था, उसकी तुलना में उन इलाकों की स्थिति जहां रोटवारी प्रथा (जैसे गुजरात), ज्यादा अच्छी थी. वहां का प्रशासन भी अच्छा था. इसलिए, यह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है कि गुजरात से ही ऐसे लोग निकले, जिन्होंने विकास के नये प्रतिमान स्थापित किये.
इसका परिणाम यह हुआ कि गुजरात में उद्यमिता का विकास हुआ. अंबानी, अडानी और निरमा जैसी पहली पीढ़ी के कई उद्यमी हैं, जो कम समय में बहुत आगे निकल गये. आनंद में दूध के क्षेत्र में सहकारिता आंदोलन ने अपनी पहचान विश्व में बनायी. रजवाड़ों की भूमिका भी सकारात्मक थी. बड़ौदा राजघराने ने विकास और प्रशासन में नये प्रयोग किये जो सफल हुए. लेकिन ये सभी लाभ पहुंचाने वाले तत्व ऐतिहासिक हैं.
वर्ष 1984 में, जब माधव सिंह सोलंकी राज्य के मुख्यमंत्री थे, सेंटर फॉॅर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइइ) ने वैसे 100 जिलों का डाटा इकट्ठा किया था, जहां चार हजार करोड़ से ज्यादा का निवेश हुआ है. इसमें सबसे अधिक जिले गुजरात (करीब 25) के थे. सिर्फ भरूच जिले में ही जितना निवेश था, वह पूरे देश के निवेश से ज्यादा था. वास्तव में, गुजरात में वित्तीय और औद्योगिक ग्रोथ का जो ट्रेंड पहले से था, उसे नरेंद्र मोदी ने आगे बढ़ाया, उन्होंने गुजरात में कोई नया ट्रेंड शुरू नहीं किया.
अंत में, यह बात गौर करने लायक है कि गुजरात आíथक विकास के बावजूद सामाजिक विकास में बहुत पीछे है. साक्षरता, गरीबी, जन्म के समय जीवित रहने की उम्मीद, मानव विकास सूचकांक के मामले में गुजरात अभी बहुत पीछे है. इसकी पृष्ठभूमि में हार्दकि पटेल के आंदोलन को समझा जा सकता है.
इसकी तुलना में, बिहार को विकास के ट्रैक पर लाने की नीतीश कुमार की रणनीति को एक मॉडल कहा जा सकता है. बिहार में नीतीश कुमार को विरासत में आíथक रूप से समृद्ध राज्य नहीं मिला था.
नरेंद्र मोदी के पास भाजपा का एक मजबूत संगठन भी था, वहीं नीतीश कुमार को राजनीति के कई मोर्चो पर आगे बढ़ना था. उन्हें राज्य में एक मजबूत प्रशासन का तंत्र विकसित करना था, लोगों के भीतर ऊर्जा का संचार करना था और उसके बाद विकास के काम को आगे बढ़ाना था. हालांकि वह सब काम नहीं कर पाये. उनके नेतृत्व में बिहार ने निर्णायक शुरुआत जरूर की.
यहां एक बात दिमाग में रखने की जरूरत है कि बिहार ने आजादी के बाद के औद्योगिक विकास में आíथक छूट देकर देश की बहुत बड़ी सहायता की. यह सहायता बिहार ने अपने खनिज संसाधनों को भाड़ा समानीकरण नीति के तहत राज्य से बाहर जाने देकर किया.
बिहार में राज्य के प्रयासों की बदौलत शिक्षा, स्वास्थ्य और दूसरे सामाजिक संकेतकों के क्षेत्र में व्यापक सुधार व समेकित विकास हुआ. वर्ष 2001 से 2011 के बीच साक्षरता की दर में 16.8 } का इजाफा हुआ. महिलाओं में साक्षरता की दर 20} बढ़ी. शिशु मृत्यु दर जबरदस्त गिरावट के बाद अब राष्ट्रीय औसत के बराबर हो गया है. नि:संदेह, नीतीश कुमार की इस विकास नीति को विकास के नये मॉडल के रूप में पेश किया जा सकता है.
किसी भी सूरत में मानव विकास ही भविष्य में विकास का मॉडल होगा. सामाजिक न्याय के नये चुनावी ध्रुवीकरण में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार कृषि क्षेत्र के सुधार के मुद्दे को आगे बढ़कर उठा सकते हैं. इस काम के लिए वह चुनावी लोकप्रियता को दरकिनार कर सकते हैं. विकास की यह राह, जिसमें समानता और आíथक उन्नति को बराबर तवज्जो दी गयी है, देश में सामाजिक न्याय का नया प्रतिमान स्थापित करेगी.
(समाप्त)