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बिहार की बात हो रही है, हम तो इसी में खुश हैं
गिरींद्र नाथ झा कबीर की एक वाणी है-अनुभव गावै सो गीता. बिहार में चुनावी बयार के वक्त जब मैं घुम-घुमकर लोगों से बात करता हूं तो लगता है कि सचमुच कबीर की वाणी हमें राह दिखाती है. समाचार चैनलों पर चुनावी गणति सुलझाते विशेषज्ञों से इतर चौक चौराहों पर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनके […]
गिरींद्र नाथ झा
कबीर की एक वाणी है-अनुभव गावै सो गीता. बिहार में चुनावी बयार के वक्त जब मैं घुम-घुमकर लोगों से बात करता हूं तो लगता है कि सचमुच कबीर की वाणी हमें राह दिखाती है. समाचार चैनलों पर चुनावी गणति सुलझाते विशेषज्ञों से इतर चौक चौराहों पर ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनके पास ग्राउंड पॉलिटिक्स के ढेर सारे अनुभव हैं. ये वे लोग हैं जो खेती-बाड़ी करते हैं, दुकानदारी करते हैं..लेकिन उनके पास विशेषज्ञ होन का प्रमाण पत्र नहीं है!
सिमराही बाजार में चाय दुकान चलाने वाले शिवेसर कहते हैं ‘‘बिहार की
राजनीति जात से चलती है. यहां मुखिया का चुनाव भी जाति के ढेर सारे
समीकरणों के आधार पर लड़ा जाता है. ये तो विधायक का चुनाव है. चुनाव से पहले जो भी आप छापते हैं या टीवी वाले दिखाते हैं उसका असर शहरी लोगों पर होता होगा, हम पर नहीं है. ‘‘ शिवेसर की बातों से पता चलता है कि कैसे ग्राउंड पर लोग चुनावी को समझ रहे हैं. पत्रकारिता में ग्राउंड जीरो का मतलब शिवेसर जैसे लोग बेहतर तरीके से बता सकते हैं.
कंप्यूटर साइंस के छात्र अभिनव बताते हैं कि चुनाव से पहले कुछ भी बताना टेढ़ी खीर है. फिर भी कयासों के जरिए राजनीति को बड़े दिलचस्प तरीके से परोसा जा रहा है. पटसन की खरीद-बिक्री करने वाले रमेश साह कहते हैं- ‘‘नीतीश आएं या कमल खिले, इस बार का चुनाव राष्ट्रीय अहमियत रखता है. हर कोई बिहार की बात कर रहा है. हम सब इसी से खुश हैं.’’
कालाबलुआ से पहले इंदरनगर इलाके में हमारी मुलाकात एक किसान श्रीचंद से होती है. आलू के लिए खेत तैयार कर रहे श्रीचंद ने बताया कि बिहार की मौजूदा राजनीति को समझने के लिए पहले लालू यादव को समझना होगा. उनके मुताबिक लालू बिहारी राजनीति के ‘साहेब’ हैं. इस तरह की बातें अक्सर टेलीविचन पर या अखबारों में सुनने-पढ़ने को मिलता था.
श्रीचंद आगे बताते हैं कि लालू कैसे एक जमाने में बिहार में पिछड़ों के नायक बन गए थे. उनकी बोली कैसे लोगों को खींच लेती थी. हम जिसे सेंस ऑफ ह्यूमर कहते हैं दरअसल श्रीचंद उसी की बात कह रहे थे. जब हमने पूछा कि अब उनके बारे में आप क्या कहेंगे, इस सवाल पर उन्होंने कहा- इस चुनाव में उनकी राजनीतिक विरासत दांव पर लगी है. बेटे के चक्कर में कहीं लालू सबकुछ गवां न दें. इस चुनाव में यदि कोई लालू की ‘ब्रांड पॉलिटिक्स’ की बात कर रहा है तो जरुर राजद के लिए यह अच्छी खबर है.
दूसरी ओर शनिवार को पूर्णिया की रैली में भाजपा अध्यक्ष अमति शाह ने लालू प्रसाद और नीतीश कुमार पर हमला जारी रखा. शाह ने कहा, अगर राज्य में लालू और नीतीश आएंगे तो जंगलराज-2 आएगा, लेकिन भाजपा और उसके सहयोगी इसे नहीं आने देंगे. उन्होंने दो तिहाई बहुमत से एनडीए की सरकार बनने का विश्वास भी जताया.
राजनीति यही है. ग्राउंड पर लोगों की बातें सुनिए और फिर किसी चुनावी सभा में नेताओं की बातों पर नजर घुमाइए. तस्वीरें साफ हो जाएंगी. वैसे नीतीश कुमार को लेकर भी लोग खूब चर्चा कर रहे हैं.
अररिया जिले के हासा कमालपुर चौक पर एक किराना दुकानदार परमानंद साह ने बताया कि आज नीतीश भले ही लालू के साथ चले गए हों लेकिन उनकी पहचान लालू विरोध से ही बनी है. उन्होंने बताया कि लालू दौर के बाद बिहार में क्या बदलाव आया और राज्य में कानून व्यवस्था कैसे बेहतर हुई, यह नीतीश के अलावा कौन बता सकता है. इस तरह के बयानों को सुनकर लगता है कि जमीन पर आकर हम यदि लोगों की बातों को सुनेंगे तो एक बेहतर रिपोतार्ज बन सकता है, जिसमें बिहार की अलग-अलग छवि को हम संकलित कर सकते हैं. कभी कभी मुङो लगता है कि राजनीति खुद में एक ‘शानदार रिपोर्ताज औरकिस्सागोई है’.
इन दिनों लगातार घुमते हुए यह अहसास हो चुका है कि बिहार चुनाव में सबसे बड़ा फैक्टर यदि कुछ है तो वह है जाति. किशनगंज के दिबाकर बनर्जी कहते हैं कि बिहार की राजनीति को समझना है तो जातीय समीकरणों की पड़ताल जरूरी है.
चुनावी बतकही करते हुए लगता है कि हमें 1990 में राज्य में कांग्रेस के पतन के बाद की राजनीति को भी समझना होगा. राजनीति हमें अक्सर कई चीजें
समझाती हैं. बाद बांकी जो है सो तो हइए है.
(श्री झा पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद अपने पैतृक गांव में रहकर खेती-किसानी कर रहे)
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