निलय उपाध्याय,मुंबई से इस चुनाव से किसी बुनियादी बदलाव की उम्मीद नहीं दिख रही है. ऐसा मानने के पीछे की वजह जानना जरूरी है. बिहार में आज जो राजनैतिक परिदृश्य है, वह भारी अंतरविरोधों से भरा हुआ है. बात चाहे इस पक्ष की हो या उस पक्ष की. दोनों की पक्षों का कोई वैचारिक आधार […]
निलय उपाध्याय,मुंबई से
इस चुनाव से किसी बुनियादी बदलाव की उम्मीद नहीं दिख रही है. ऐसा मानने के पीछे की वजह जानना जरूरी है. बिहार में आज जो राजनैतिक परिदृश्य है, वह भारी अंतरविरोधों से भरा हुआ है. बात चाहे इस पक्ष की हो या उस पक्ष की. दोनों की पक्षों का कोई वैचारिक आधार नहीं है. दोनों ही पक्षों के पास कोई दृष्टि नहीं है और दोनों ही पक्ष परिवर्तनकारी शक्तियों को सतह पर आने नहीं देना चाहते.
बिहार का यथार्थ देश के दूसरे विकसित राज्यों के यथार्थ से बिल्कुल अलग है. किसी विकसित राज्य से बिहार की तुलना करने का कोई तुक नहीं है. जरूरी है कि बिहार आज के अपने यथार्थ को कैसे बदल सकता है. क्या इसे बदलने वाली राजनैतिक ताकतों के पास इसकी कोई अवधारणा है? मुङो लगता नहीं है ऐसी कोई बात इन पार्टियों के पास है. आज की हकीकत यह है कि हर विचार अपने ही विचारों के खिलाफ गुत्थम-गुत्था हो रहा है. ऐसे में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
बिहार में सामंतवाद और बाजारवाद का गाद जमा हो गया है और सामाजिक जीवन पर इनका जबरदस्त असर दिख रहा है. एक दूसरे किस्म का लूट तंत्र काम कर रहा है. जातिवाद की अहम भूमिका अदा कर रहा है. भ्रष्टाचार के तरीके बदल गये हैं. इन स्थितियों से निबटने के लिए राजनीतिक दलों के पास कोई तैयारी नहीं दिख रही है और न ही इसकी कोई दिलचस्पी ही है. जब हम यह बात कह रहे हैं, तो इसके दायरे में भाजपा भी शामिल है और नीतीश कुमार व लालू प्रसाद भी.
ये राजनैतिक शक्तियां एक ही प्लेटफॉर्म पर खड़ी नजर आती हैं. ये जिस बदलाव की बात करती हैं, वह बेहद उथले किस्म के बदलाव की बातें हैं. इससे सामाजिक बदलाव नहीं होगा. पिछले एक दशक के दौरान बिहार में बदलाव की बात कही जाती है. कहा जाता है कि राज्य की छवि अब पहले की तरह नहीं रही. लेकिन मुङो लगता है कि यह कृत्रिम बदलाव है.
हमें यह मानना होगा कि बिहार के साथ सर्वाधिक उपेक्षा की गयी है. वैदिक काल से ही हम देखते हैं कि बिहार के साथ भेदभाव किया गया. कासी नगरी तो कोसी अंचल में बसने वाली थी. उसे बनारस ले जाया गया. बिहार के कई इलाकों का उल्लेख अगर शापित भूमि के तौर पर आता है, तो इसका मतलब है कि बिहार के साथ कहीं न कहीं अन्याय किया गया. मेरा मानना है कि पुराण काल से ही बिहार की अवनति शुरू हुई. यह सिलसिला अब तक थमा नहीं है.
आधुनिक काल में भी बिहार भेदभाव का शिकार रहा. बिहार को नयी ऊंचाइयों पर ले जाना है, तो यह नवजागरण से ही साकार होगा. किसी सरकार के आने-जाने से कतई नहीं. मौजूदा राजनीतिक शक्तियों में लक्षण-तत्व नहीं दिख रहा है. मेरा मानना है कि इन तमाम निराशा के बीच बिहार से ही कोई राह भी निकलेगी. बिहार में ही वह ऊर्जा है. यहां का समाज अपने दम पर परिवर्तन की ओर बढ़ेगा. यह जरूर है कि इसकी कोई निश्चित समय सीमा नहीं बतायी जा सकती है.
लेखक मुंबई में एक दशक से रह रहे हैं. वह पटकथा लेखक है. मूल रूप से वह बिहार के आरा से हैं