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हर बुक व कॉपी पर स्कूलों को 25 फीसदी कमीशन

पटना : प्राइवेट स्कूलों में हर साल कोर्स बदल जाता है और अभिभावकों को कुछ तयशुदा दुकानों और पब्लिशर्स से ही बुक व कॉपी खरीदने की मजबूरी होती है. पब्लिशर्स का शहर के स्कूलों में एकाधिकार है. वो जो चाहते हैं, स्कूल से करवाते हैं. स्कूलवाले इन्हीं पब्लिशर्स से बुक्स और कॉपी के साथ स्टेशनरी […]

पटना : प्राइवेट स्कूलों में हर साल कोर्स बदल जाता है और अभिभावकों को कुछ तयशुदा दुकानों और पब्लिशर्स से ही बुक व कॉपी खरीदने की मजबूरी होती है. पब्लिशर्स का शहर के स्कूलों में एकाधिकार है.
वो जो चाहते हैं, स्कूल से करवाते हैं. स्कूलवाले इन्हीं पब्लिशर्स से बुक्स और कॉपी के साथ स्टेशनरी का समान लेते हैं और इसके लिए स्कूल को मोटा कमीशन भी मिलता है.
पटना के कुछ पब्लिशर्स से बात करने पर पता चला कि स्कूलों को जहां बुक्स और कॉपी पर 20 से 25 फीसदी तक कमीशन मिलता है, वहीं स्टेशनरी पर 60 फीसदी तक कमीशन मिलता है. शहर के तमाम स्कूलों में यह खेल बखूबी चलता है. इस खेल में स्कूलों को मोटी रकम मिलती है, वहीं पब्लिशर्स खुलेआम अभिभावकों को लूटते हैं.
पब्लिशर्स को चार से पांच गुना तक होता है फायदा
वर्तमान में पटना में करीब 318 स्कूल हैं. इनमें करीब 5.77 लाख स्टूडेंट्स हैं. इतने स्टूडेंट्स के लिए बुक्स की कीमत करीब 60.58 करोड़ रुपया आता है. एक पब्लिशर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि हमारा मकसद स्कूलों में अपनी पहुंच बनानी होती है. अगर एक बार हम स्कूल कैंपस में घुस गये, तो फिर हमें चार से पांच गुणा फायदा होता है.
बदले में स्कूलवालों को हम मोटा कमीशन देते हैं. अगर 2015 सत्र की बात करें, तो इस बार कमीशन के तौर पर 11 करोड़ 44 लाख 80 हजार रुपये खर्च किये गये हैं. पटना में किस पब्लिशर को अपनी पैठ बनानी है, इसकी फिक्सिंग हम नये सेशन शुरू होने के पहले ही कर लेते हैं.
ऑप्शन के अनुसार चलता है कमीशन का खेल
नये सेशन के शुरू होने के पहले स्कूलवालों को पब्लिशर्स दो आप्शन देते हैं. एक पब्लिशर ने बताया कि पहला ऑप्शन पब्लिशर्स की मरजी के अनुसार किताबें स्कूल में चलायी जायें.
इससे पब्लिशर्स का नाम घरों तक पहुंच जाता है और पब्लिशर्स का सीधा संपर्क छात्रों से हो जाता है. दूसरा ऑप्शन कमीशन का होता है. इसमें किताबें तो स्कूल की मरजी से चलती हैं, लेकिन इसे छात्रों तक पहुंचाने के लिए पब्लिशर्स स्कूल को कमीशन देते हैं. यह कमीशन कितना होगा, यह पब्लिशर्स और स्कूल के बीच बातचीत पर निर्भर करता है. बुक, कॉपी और स्टेशनरी का खेल पूरे साल चलता रहता है.
ऐसे करते हैं मार्केटिंग
किताबों की मार्केटिंग के लिए पब्लिशर्स दो लेवल पर काम करते है. पहला सीधे पब्लिशर से डील करते हैं. यह काम कॉरपोरेट स्टाइल में होता है. दूसरा तरीका होता है एजेंट के माध्यम से. इस काम का स्टाइल फार्मा कंपनियों के रिप्रजेंटेटिव की तरह होता है. ये लोग डिस्ट्रीब्यूटर के अंडर में काम करते हैं. हालांकि उसकी रिपोर्टिग पब्लिशर को होती है. हर साल पब्लिशर की ओर से बाकायदा टारगेट दिया जाता है.
सीबीएसइ में केवल एनसीइआरटी की ही किताबें चलती है. लोकल पब्लिशर्स की किताबें स्कूल में नहीं चल सकती हैं.
राजीव रंजन सिन्हा, सिटी को ऑर्डिनेटर, सीबीएसइ
अभिभावक की पीड़ा
मुङो दो बच्चों के लिए हर साल दो से तीन हजार रुपये की किताबें खरीदनी पड़ती हैं. कॉपी में स्कूल का नाम लिखा होता है, इस कारण उसे स्कूल से या स्कूल द्वारा बताये गये दुकान से ही लेनी होती है.
पंकज पाठक
स्कूल की मरजी के खिलाफ हम कुछ नहीं बोल पाते हैं. किताबों, कॉपी और स्टेशनरी की खरीदारी फिक्स दुकानों से करनी पड़ती है. जो कॉपी हमें 10 रुपये में दूसरे दुकानों में मिलती है, उसी कॉपी पर स्कूल के नाम मात्र से 15 से 20 रुपये देने पड़ते हैं.
रोशनी सिंह

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