यह बाली उसकी दो साल की छोटी बहन ने अज्ञानतावश मुंह में डाल दी थी जो उसकी दादी द्वारा जबरदस्ती निकालने के प्रयास में पेट के अंदर चली गयी. मामला सहरसा जिले के सौर बाजार प्रखंड के रघुनाथपुर गांव का है.
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बिना सजर्री डेढ़ माह के बच्चे के पेट से निकाली कान की बाली
पटना: खेल-खेल में बच्चे यूं ही कड़ा धातु मुंह से निगल कर अभिभावकों की परेशानी बढ़ा जाते हैं. ऐसी स्थिति में उसे निकालने का एकमात्र माध्यम ऑपरेशन ही होता है, जो बाद में बच्चे के लिए कांपलीकेशन का विषय बन जाता है. मगर गुरुवार को पारस अस्पताल में गैस्ट्रो इंट्रोलॉजी के डॉ विजय शंकर ने […]
पटना: खेल-खेल में बच्चे यूं ही कड़ा धातु मुंह से निगल कर अभिभावकों की परेशानी बढ़ा जाते हैं. ऐसी स्थिति में उसे निकालने का एकमात्र माध्यम ऑपरेशन ही होता है, जो बाद में बच्चे के लिए कांपलीकेशन का विषय बन जाता है. मगर गुरुवार को पारस अस्पताल में गैस्ट्रो इंट्रोलॉजी के डॉ विजय शंकर ने बगैर चीर फाड़ किये इंडोस्कोपी के माध्यम से मात्र डेढ़ साल के बच्चे के पेट से कान की बाली निकाल कर उसके अभिभावक को काफी राहत दी.
छोटी उम्र के चलते अधिक मुश्किल
बच्चे का इलाज करने वाले डॉ विजय शंकर ने बताया कि मंगलवार को मुंह में बाली डाल जाने के बाद गुरुवार को उसके परिजन बच्चे को पारस एचएमआरआइ अस्पताल लेकर आये. उन्होंने बताया कि बच्चे की उम्र को देखते हुए पेट से बाली निकालना बड़ी चुनौती थी. इतनी छोटे बच्चे का ऑपरेशन करने पर बड़ा रिस्क था. इसको देखते हुए हमने बच्चे को बेहोश कर इंडोस्कोपी के माध्यम से बाली निकालने की योजना बनायी.
मुंह के रास्ते डाली दूरबीन
डॉक्टर ने बताया कि बिना सजर्री के पेट से बाली निकालने में अत्यधिक सावधानी बरतनी पड़ी, क्योंकि बाली से कहीं आंत में खरोंच या घाव बन जाने पर परेशानी बढ़ जाती. इसके लिए पहले बच्चे को बेहोश किया गया और उसके बाद पतला तार दूरबीन की मदद से मुंह के रास्ते पेट में डाला गया. दूरबीन मे चिमटा भी फिट किया गया.
आंत को फुला हटायी बाली
जब दूरबीन के जरिये आंत पर सटा बाली दिखा तो हवा देकर आंत को फुलाया गया ताकि बाली आंत से हटे. इसके बाद चिमटा से पकड़ कर बाली को मुंह के रास्ते बाहर निकाला गया.
45 मिनट में पूरी हुई प्रक्रिया
सजर्री के बारे में पूछे जाने पर डॉ़ शंकर ने बताया कि यूं तो किसी भी उम्र में आंत का ऑपरेशन खतरनाक होता है और बच्चे के मामले में तो जहां तक संभव हो ऑपरेशन अंतिम विकल्प के रुप में रखना चाहिए. इस प्रक्रिया में पेट से बाली निकालने में 45 मिनट लगे. ऑपरेशन में उनके स्टाफ सुनील कुमार तथा सिस्टर श्रीमती सरोज ने मदद की. एनेस्थेसिया के डॉ़ श्रीनारायण और उनके सहयोगियों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा. डॉ़ शंकर ने बताया कि बाली निकाले जाने तक बच्चे को इंट्रावेनस आहार दिया जा रहा था.
काफी कम राशि हुई खर्च
डॉ शंकर ने बताया कि बच्ची की स्थिति व अभिभावकों को देखते हुए उनको मात्र पांच से छह हजार का ही खर्च आया. हालांकि दूसरे किसी मरीज के ऑपरेशन में इस पर 25 से 30 हजार रुपये व ओटी का खर्च अलग से आता.
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