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महिला दिवस. इस दिन केंद्र और राज्य सरकारें विशिष्ट महिलाओं को सम्मान देती हैं. सरकारी तंत्र महिला सशक्तीकरण की दिशा में किये गये अपने कार्यों को बखान करता है. कई सामाजिक संगठन जुलूस निकालते हैं. जलसे करते हैं. पितृसप्तात्मक समाज विरोधी नारे उछलते हैं. नाचना गाना होता है और इन जगहों पर खाने-पीने की व्यवस्था […]

महिला दिवस. इस दिन केंद्र और राज्य सरकारें विशिष्ट महिलाओं को सम्मान देती हैं. सरकारी तंत्र महिला सशक्तीकरण की दिशा में किये गये अपने कार्यों को बखान करता है. कई सामाजिक संगठन जुलूस निकालते हैं. जलसे करते हैं. पितृसप्तात्मक समाज विरोधी नारे उछलते हैं. नाचना गाना होता है और इन जगहों पर खाने-पीने की व्यवस्था हो तो खा पी कर मनोरंजन से तृप्त होकर फिर अगले साल इकट्ठे होने की कामना लेकर अपने-अपने दायरे में लौट जाती हैं. मैं भी जाती हूं इन आयोजनों में. अधिवक्ता हूं इसलिए हर बार महिला संबंधी कानूनों में उपस्थित विडंबनाओं की ओर सभा का ध्यानाकर्षण करती हूं. सवाल उठाती हूं कि जिस देश में तमाम संवैधानिक प्रावधानों, अंतरराष्ट्रीय समझौते, महिला अधिकारों की सुरक्षा के लिए बने विशेष आयोगों, निगमों, विभागों, नारी स्वतंत्रता के सैंकड़ों झाडाबदारों के बाद स्थिति यह हो कि भारत की हर स्त्री की नियति पंचाली या नगरवधु बनने की ओर अग्रसर है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का क्या औचित्य है? उन्हें बताती हूं कि जब तक हमारी आवाज इन प्रावधानों के विरूद्ध नहीं उठेगी, जब तक हमारी आवाज महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाये गये विशेष अधिनियमों जैसे दहेज निषेध अधिनियम (2005) आदि को अनैतिक व्यापार निषेध अधिनियम(1986) घरेलू हिंसा निषध अधिनियम(2005) आदि को प्रभावी बनाने के लिए इनकी मूलभूत संरचनाओं को खड़ी करने के लिए नहीं उठेगी, ये कागज का श्रृंगार और महिला समाज को श्राप बनी रहेगी. – ममता रानी वर्मा, अधिवक्ता

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