Advertisement
वासभूमि का अधिकार और बुनियादी प्रस्थापनाएं
संजय कुमार बिहार सरकार के राजस्व एवं भूमि सुधार ने वासभूमि के अधिकार पर एक प्रारूप विधेयक बिहार राइट टू होमस्टीड एक्ट, 2014 बनाया है. विधेयक का यह सार है कि जो आवासहीन और भूमिहीन हैं, वे सरकार से वासभूमि का हक हासिल कर सकें. इस संदर्भ में यह एक सकारात्मक पक्ष है कि इस […]
संजय कुमार
बिहार सरकार के राजस्व एवं भूमि सुधार ने वासभूमि के अधिकार पर एक प्रारूप विधेयक बिहार राइट टू होमस्टीड एक्ट, 2014 बनाया है. विधेयक का यह सार है कि जो आवासहीन और भूमिहीन हैं, वे सरकार से वासभूमि का हक हासिल कर सकें. इस संदर्भ में यह एक सकारात्मक पक्ष है कि इस एक्ट में प्रदत्त अधिकार में उन समुदायों को पहली प्राथमिकता होगी, जो वर्गीय अधिकार पर भूमिहीन हैं व आवासहीन और सामाजिक आधार पर अनुसूचित जाति, जनजाति, महादलित तथा अतिपिछड़ा समुदाय से आते हैं.
यह उल्लेखनीय है कि मानव जीवन के लिए आवास एक मूलभूत आवश्यकता है.
आवास से केवल प्रकृति की विपदाओं से ही सुरक्षा नहीं मिलती, अपितु व्यक्ति एवं परिवार के भौतिक, भावनात्मक एवं बौद्धिक विकास की संभावनाएं भी सुरक्षित रहती हैं. व्यक्ति एवं परिवार के संपूर्ण कल्याण को देखते हुए आवास के अधिकार को कई अंतरराष्ट्रीय संधियों, भारतीय संविधान एवं सर्वोच्च न्यायालय ने अनिवार्य माना है. इस अर्थ में पहली बात यह है कि यह प्रस्तावित एक्ट सिद्धांतत: वास के अधिकार को मानव जीवन के बुनियादी मानवीय अधिकार के रूप में अपना घोषित लक्ष्य रखे. प्रस्तावित एक्ट के संदर्भ में दूसरा बुनियादी पक्ष यह है कि बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां जमीन पर बसे लोगों का घनत्व देश के अन्य राज्यों की तुलना में सर्वाधिक है.
2001 की जनगणना के अनुसार, बिहार में गृहविहीन लोगों की संख्या 42.10 लाख थी और गृहविहीनता की श्रेणी में यह सबसे ऊपर का राज्य था. हाल में संपन्न ‘सोशियो-इकोनॉमिक कास्ट सेंसस, 2013’ के मुताबिक, गृहविहीनों की संख्या बिहार में 3,02,635 लाख है और अब यह दूसरा राज्य है और इस श्रेणी में पहले राज्य के स्थान पर बंगाल है. हालांकि इन सरकारी आंकड़ों से इतर बिहार में वासभूमि और आवासहीनता की समस्या की गहराई का आकलन नागरिक संगठन के दृष्टिकोण से या वैसे प्रगतिशील प्रशासक और नीति-निर्माता के दृष्टिकोण से करें, तो इसकी एक भयावह तसवीर सामने आती है. इस संदर्भ में प्रगतिशील प्रशासक प्रो केबी सक्सेना-जो बिहार में शोषितों-उत्पीड़ितों के जन-नायक के रूप में जाने जाते हैं-ने हाल में प्रकाशित एक पुस्तक बिहार में वासभूमि और आवास का अधिकार : स्थिति, मुद्दे और चुनौतियां की भूमिका में यह लिखा कि ‘जिलास्तर पर जिलाधिकारी दाखिल दावों के आधार पर अपने अनुमान लगाते हैं. बेहिसाब संख्या में ऐसे दावे जो रिपोर्ट ही नहीं हुए उससे वे अनभिज्ञ हैं, तथा न ही उनके विषय में जानकारी एकत्र करने के प्रयास होते हैं.
पूर्णिया जिले से जब अररिया जिला बना तो यह बात और भी प्रासंगिक हो गयी. 1992 में मैं बतौर अतिरिक्त मुख्य सचिव इस जिले में मैं बतौर अतिरिक्त मुख्य सचिव इस जिले के दौरे पर गया. वहां मैंने जिला कलेक्टर से उनलोगों की संख्या की जानकारी चाही जो रैयती/शासकीय भूमि पर बसे हैं तथा जिन्हें स्वामित्व नहीं मिल पाया था जिसके पास आवास हेतु भूमि नहीं है. ऐसी जानकारी में प्रत्येक कलेक्टर से चाहता था. प्रखंड स्तर पर कुछ विलंबित मामलों को छोड़ लगभग प्रत्येक कलेक्टर ने इस समस्या से इनकार किया क्योंकि ऐसे इनकारों से मैं अभ्यस्त था, मैं जिला अधिकारियों को गांव-गांव ले जाता, समस्या की विकरालता दरसाता तथा शासकीय नीति-नियम के पुरजोर कार्यान्वयन पर दबाव डालता. अररिया जिले के एक गांव में अचानक पहुंचा. कलेक्टर साथ थे.
हम गांव के अनुसूचित जाति के टोले पहुंचे और उनलोगों के बारे में पूछताछ की जो रैयती या शासकीय भूमि पर बसे थे, किंतु उसका स्वामित्व नहीं था. भू-स्वामियों के भय से लोग उत्तर देने में हिचक रहे थे. धीरे-धीरे लोग खुलने लगे. उन्होंने उनलोगों की जानकारी दी थी, जो ऐसी भूमि पर बसे थे किंतु उनके पास सुरक्षित अधिकार नहीं था. हम गांव में रात्रि नौ बजे तक बैठे और ऐसे 90 लोगों की जानकारी ली. और कई नाम रह गये जिन्हें हम दर्ज नहीं कर पाये. उनकी जानकारी लेने हेतु मैंने कलेक्टर को अगले दिन आने का निर्देश दिया. पूरे जिले में समस्या से इनकार करने के बाद जब एक ही गांव में इतनी संख्या निकल आयी तो कलेक्टर शर्मिदा दिखे. वह जान गये कि समस्या एक ही गांव तक सीमित नहीं है, बल्कि जिले-भर में व्याप्त है.
एक संवेदनशील अधिकारी होने के नाते उन्होंने छह माह में सभी प्रभावित लोगों का सर्वे कर योग्य लोगों को शासकीय नीति एवं नियम का लाभ पहुंचाने का समय मांगा. कलेक्टर सामान्यत: उच्च अधिकारियों से ऐसे वायदे करते रहते हैं, किंतु अनय व्यस्तताओं एवं अन्य शासकीय कार्यो के दबाव के कारण वायदे पूरे नहीं कर पाते. किंतु यह कलेक्टर और तरह के थे. आठ माह बाद सूचना दी कि उन्होंने 60,000 लोगों को आवास के सुरक्षित अधिकार देने में सफलता प्राप्त की है.’ इसलिए उपयरुक्त समस्या की जो विकरालता बिहार में मौजूद हे, उसकी गंभीरता और गहराई के अनुरूप इस प्रस्तावित एक्ट को वस्तुपरक बनाने की जरूरत है. यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि एक परंपरागत खेतिहर समाज में कानून केा मुकम्मल रूप से निर्मित करने और उसकी कार्यान्वित करने में उस समाज के जो सफल प्रयोग है, उन्हें भी प्रमुखता के साथ ध्यान में रखने की जरूरत है.
यह उल्लेखनीय है कि बिहार में वासभूमि पर बने कानून की मदद लेते हुए एक नागरिक संगठन पैक्स की मदद से देशकाल सोसाइटी अपने तीन सहयोगी संगठनों प्रखंड ग्राम स्वराज सभा, ग्राम निर्माण केंद्र तथा लोकशक्ति शिक्षण केंद्र के साथ गया जिले में पिछले लगभग एक दशक से काम कर रही है. इस कड़ी में इन संगठनों ने इस जिले के 440 गांवों में लगभग 42,000 दलित परिवारों को चिह्न्ति करते हुए वासभूमि को जमीन पर उतारने का एक सफल प्रयोग किया. इस प्रयोग का यह फल है कि इन गांवों में शायद ही कोई दलित परिवार हो, जिसका वासभूमि के लिए आवेदन प्रखंड कार्यालय में जमा न हुआ हो. इतना ही नहीं, इनमें लगभग 8,000 लोगों को वासभूमि पर परचा और परवाना मिना चुका है. इस प्रयोग का सबसे बुनियादी पक्ष यह है कि इस प्रक्रिया को निर्मित करने और सफल बनाने में इन नागरिक संगठनों ने शुरू के वर्षो में ही हरेक गांव में समुदाय-आधारित संगठन के निर्माण की नींव रख दी थी.
इस तरह 440 समुदाय-आधारित संगठन बने जिसके लगभग 10 हजार सदस्य बनाये गये. इन सदस्यों में आधी संख्या स्त्रियों और आधी संख्या पुरुषों की है. इस समुदाय-आधारित संगठन ने यह रणनीति शुरू से बनायी कि सबसे पहले यह आकलन कर ले कि वासभूमि का परचा या परवाना कितनों के पास है और कितनों के पास नहीं है. इस आकलन का दूसरा चरण यह रहा कि इन संगठनों और समुदाय-आधारित संगठनों ने संयुक्त रूप से अपने प्रखंड में आवेदन दाखिल किये और ऐसी स्थिति बनायी जिसमें प्रखंड और जिला स्तर के भू-राजस्व से जुड़े अधिकारियों ने इस कार्य को गति देने में सक्रिय भूमिका निभायी.
इस तरह यह मिसान बना कि समुदाय-आधारित संगठन, नागरिक संगठन और सरकार के रचनात्मक संबंध और पहलकदमी से कानून के भूमिहीनों और दलितों के बीच कार्यान्वित किया जा सकता है. इस तरह वासभूमि के अधिकार के लिए प्रस्तावित एक्ट को इस परिप्रेक्ष्य से भी निर्मित करने और समझने की जरूरत है कि एक्ट के प्रावधानों को इस तरह रखा जाये तो यह सुनिश्चित करे कि समुदाय (खासतौर से अनुसूचित जाति, जनजाति, महादलित और अति पिछड़ा वर्ग), इनसे जुड़े सामुदायिक संगठन तथा नागरिक संगठन की पहलकदमी और सक्रियता से सम्मानजनक तरीके और बराबरी के स्तर पर रचनात्मक संबंध निर्मित हो. यह किसी भी कानून को जमीनी स्तर पर क्रियान्वित करने की एक पूर्व निर्धारित शर्त है.
इसी तरह प्रस्तावित एक्ट के उपबंधों में यह अनिवार्य शर्त के तौर पर रखना होगा कि वासभूमि का अधिकार की प्रशासनिक प्रक्रिया और उसका निष्पादन अंचल-स्तर पर हो. यह सर्वविदित है कि उत्पीड़ितों और दलितों के पक्ष में बनाये जानेवाले जितने कानून हैं, अगर उसकी प्रक्रिया दुरुह और उसे निष्पादन का अंतिम अधिकार जिला और सचिवालय स्तर पर की जाती है तो ऐसे समूह के लिए कानून से लाभ लेना आसान नहीं रह जाता है. अंत में यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि आजादी के बाद बिहार पहला राज्य बना जिसने बीपीपीएचटी ए क्ट, 1947 कानून बनाया और वास का अधिकार उन सबों को दिया जो भूमिहीन परिवार से आते थे और सामाजिक श्रेणी में अनुसूचित जाति और जनजाति से वास्ता रखते थे. इसमें केवल यह शर्त थी कि उन परिवारों को ही परचा हासिल होगा जो कम से कम अपने वासभूमि पर तीन साल से बसे हों और जमीन रैयती हो. इस एक्ट की असफलता और सफलता इतिहास आज हमारे सामने है.
इतिहास हमें सबक देता है कि भविष्य में हम इन गलतियों को न दुहराएं जिन्हें अतीत में हम कर चुके हैं. इस प्रकार उत्पीड़ितों-शोषितों के वासभूमि के हक के लिए प्रस्तावित कानून को मुकम्मल और प्रभावी रूप से निर्मित करने में ये बुनियादी प्रस्थापनाएं एक मजबूत नींव का काम करेंगी व एक सुनहरे भविष्य की तरफ बिहार के उत्पीड़ितों, दलितों और शोषितों को ले जायेंगी.
(लेखक देशकाल सोसाइटी के सचिव हैं और इंट्रोगेटिंग डेवलपमेंट इनसाइट्स फ्रॉम द मार्जिस ओयूपी के सह-संपादक हैं.)
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement