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बच्चों को नयी सदी का नेता बनाएं चंद परीक्षाओं के बंदी नहीं हों बच्चे

II शरद सागर II (शरद सागर डेक्सटेरिटी ग्लोबल के सीईओ हैं. शिक्षा और नेतृत्व के क्षेत्र में एक नयी पीढ़ी को तैयार करने में इनकी भूमिका को विश्व स्तर पर सराहा गया है. वे फोर्ब्स 30 अंडर 30 में जगह पाने वाले पहले बिहारी हैं.) आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो खुद की […]

II शरद सागर II
(शरद सागर डेक्सटेरिटी ग्लोबल के सीईओ हैं. शिक्षा और नेतृत्व के क्षेत्र में एक नयी पीढ़ी को तैयार करने में इनकी भूमिका को विश्व स्तर पर सराहा गया है. वे फोर्ब्स 30 अंडर 30 में जगह पाने वाले पहले बिहारी हैं.)
आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो खुद की ही यात्रा अद्भुत-सी लगती है. सीवान के जीरादेई में पैदा होना, मीरगंज, छपरा, पटना में पलना-बढ़ना, 12वीं के बाद करोड़ों की छात्रवृत्ति पर अमेरिका पढ़ने जाना, विश्वविद्यालय के 160 साल के इतिहास में पहला भारतीय स्नातक वक्ता होना और फिर मास्टर्स की डिग्री के लिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ऑफर को ठुकरा कर बिहार लौट आना. लोग अक्सर पूछते हैं, ऐसा कैसे हुआ? और मैं हमेशा एक ही जवाब देता हूं
मुझे बचपन से ही परीक्षाओं का शौक रहा है, मगर समय के साथ उनकी परिभाषा भी बदली है. जब हम छोटे होते हैं, परीक्षाएं बातों को, व्यक्तियों को, वस्तुओं को याद रखने की होती हैं. धीरे-धीरे यही परीक्षाएं याद रखने से बढ़ कर समझने के बारे में होने लगती हैं. अब हम किसी के कथन को हू-ब-हू लिखने की जगह उस पर टिप्पणी करते हैं.
किसी व्यक्ति के नाम और पद को याद करने की जगह उनके कार्यकाल, उनके आविष्कारों के बारे में लिखने लगते हैं और वही गाड़ी, वही सूर्य, वही घड़ी, जिनका नाम जानना ही अब तक काफी था, हम उनके पीछे के विज्ञान को जानने लगते हैं. और समय के साथ हमारी शिक्षा की असल परीक्षा-याद रखने से समझने की दूरी को तय करते-बंद कमरों के बाहर, असल दुनिया में होने लगती है.
असल जीवन की परीक्षाएं क्या हैं? संघर्ष की भाषा समझना, सफलता का व्याकरण. परेशानियों से जूझना, नये विचारों को सामने लाना. आविष्कारों से, वार्ताओं से, नीतियों से, अपने कार्यों से राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाना. खुद थोड़ा मधुर होना, अनुशासित होना, कर्मठ होना. परिवार का एक अंग होना, देश के काम आना. भारत चांद पर जीवन खोजता है
हमें वैज्ञानिक चाहिए. करोड़ों आज भी बेघर हैं, अच्छी नीतियों की आवश्यकता है. विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था तैयार हो रही है, अच्छे अर्थशास्त्री, गणितज्ञ, लेखपाल, उद्यमी चाहिए. भारत के सामने अवसर और चुनौतियां दोनों अपार हैं.
लेकिन हम और आप मिलकर परीक्षाओं के द्वारा योद्धाओं को तैयार करने की जगह, परीक्षाओं के लिए योद्धा तैयार करने लग गये, तो हम कहां जायेंगे? 13-14 साल के बच्चे डिप्रेशन में जा रहे हैं, 16-17 साल के युवाओं को 10वीं के बाद क्या, 12वीं के बाद क्या के यक्ष प्रश्न पूछे जा रहे हैं.
मीडिया, मां-बाप, हम और आप मिलकर एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जहां न शिक्षा की परिभाषा बदल रही है, न परीक्षा की. बदल रही है तो बस हमारी चुनौतियों की दुनिया. याद करने में प्रखर हमारे बच्चों से तेज कल कोई मशीन आ जायेगी, तब 100 में 100 की क्या महत्ता रह जायेगी?
आइए इस नयी सदी को समझें, इस नयी पीढ़ी को भी. ध्यान दें एक स्वतंत्र सोच विकसित करने पर, शोध की क्षमता के साथ वक्तृत्व और नेतृत्व की क्षमता विकसित करने पर. और अपने बच्चों को आने वाली सदी का नेता बनाएं, चंद परीक्षाओं का बंदी नहीं. परीक्षाओं को पाठ्यक्रम के पूरक के रूप में देखें और बच्चों को राष्ट्र के प्रेरक के रूप में.

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