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आधुनिकता के घोड़े पर सवार होली, दम तोड़ रहीं परंपराएं, फाग गाने और ढोलक की थाप सुनने को तरस गये कान

पटना : आधुनिकता के घोड़े पर सवार समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि होली के मायने ही बदल गये. बसंत की अंगड़ाई के साथ ही पछुआ हिलोरे मारने लगता था. हर ओर खिले फूलों से नजारा खास बन पड़ता था. नजारे अब भी वैसे ही हैं, पर अब वह अहसास खत्म सी हो गयी […]

पटना : आधुनिकता के घोड़े पर सवार समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि होली के मायने ही बदल गये. बसंत की अंगड़ाई के साथ ही पछुआ हिलोरे मारने लगता था. हर ओर खिले फूलों से नजारा खास बन पड़ता था. नजारे अब भी वैसे ही हैं, पर अब वह अहसास खत्म सी हो गयी है. न पहले जैसे अब समय रहा, न ही गांव गुलजार रहे. अपने काम-काज के सिलसिले में लोग गांव से पलायन कर गये.
अपनी सुविधा के हिसाब से अब छुट्टियां प्लान करने लगे. आज का समाज बेडरूम में बैठकर टीवी पर होली देखना ज्यादा पसंद करने लगा. बाहर ढूंढे लोग दिखायी नहीं पड़ते. वो हुड़दंग, वो ठिठोली, वो झाल मजीरे के साथ फगुआ… सब अब यादों में रह गये हैं. फागुन के महीने में शहर से लेकर गांव तक फाग गाने और ढोलक की थाप सुनने को कान तरस गये हैं.
बदलते दौर में खास कर ग्रामीण इलाकों में भी फागुन का अंदाज बदलने लगा है. एक दशक पहले तक माघ महीने से ही गांव में फाल्गुन की आहट मिलने लगती थी, लेकिन आज के जमाने में फाल्गुन माह में भी गांव से ऐसी महफिलें नदारद हैं. आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपराएं सिसिकियां लेने लगी हैं. फाग का सदियों पुराना राग शहरों में ही नहीं, गांवों की चौपालों से भी गुम हो गये हैं.
यह थी परंपरा :
पहले होली के दिन अलग अलग युवकों की टोलियां घर-घर घूम कर गीत गाती थीं. बदले में रंग-अबीर के साथ ही खाने के लिये तमाम तरह के व्यंजन मिलते थे. अब यह परंपरा दम तोड़ रही है. इसकी वजहें कई हैं. अब गांवों में पहले की तरह लोग नहीं रहते. गांव का गांव खाली है. रोजगार के लिये सैकड़ों किलोमीटर दूर लोग रहने लगे हैं. गांवों में भी पहले जैसी बातें नहीं रहीं.
बदला स्वरूप
अब लोगों में प्रेम की भावना ही गायब हो गयी है. लोग टीवी से चिपके रहते हैं. पहले गांवों के चौपालों से होली खेलने के लिए निकलने वाली टोली में बुजुर्ग से लेकर युवा शामिल होते थे. यह टोली सामाजिक एकता की मिसाल होती थी. पहले गांवों में होली के दिन भांग और ठंडई बड़े-बड़े बर्तनों में घोली जाती थी. जात-पात से परे गांव का हर व्यक्ति उसका सेवन करता था.
दम तोड़ रहीं परंपराएं
प्रेम सौहार्द के इस त्योहार में लोग दुश्मन के भी गले लग जाते थे. पहले होली एक महीने तक चलने वाला त्योहार था. गांवों के नजारे ही अलग होते थे. गांव भर के लोग एक जगह जमा होकर होली के हुड़दंग में मस्त हो जाते थे.
हर गांव में एक महीने तक ढोल और मंजीरे बजते थे. लेकिन अब एक-दूसरे के साथ तालमेल के अभाव, कद्रदानों की कमी और गांवों से तेज होते पलायन के चलते यह पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है. युवा पीढ़ी को तो फगुआ गीतों के बोल तक याद नहीं हैं.
अब पहले जैसी मिठास नहीं
30-40 साल पहले होली के पर्व में जो मिठास थी, अब वह नहीं है. पहले होली में अपने बड़े-बुजुर्ग लोगों को हमलोग जितना सम्मान अबीर-गुलाल के साथ देते थे, वह आज की युवा पीढ़ी भूल गयी है. पहले हमलोग अबीर गुलाल और पीतल की पिचकारी से होली खेलते थे. उसकी जगह आज कीचड़ एवं प्लास्टिक की पिचकारी ने ले ली है. पहले की तुलना में अब होली के त्योहार का जोश भी नहीं रहा. समय के साथ ही सबकुछ बदल गया है.
-अशोक त्रिवेदी, व्यवसायी
अब आपसी सौहार्द्र पहले जैसा नहीं रहा. अब सब खत्म हो गया. औपचारिकता में भी लोग कतराने लगे हैं. गांव में पहले एक-दूसरे के घर जाते थे. अब गांव में भी ऐसा नहीं रहा. शहर का ट्रेंड ही अलग हो गया है. अब तो शराब बंद है. पिछले कुछ साल पहले तो होली का मतलब नशा होता था. सड़क पर नशे में लोग दूसरों के लिए परेशानी का सबब बनते थे. पर अब शराब बंद है तो इस तरह की परेशानी ज्यादा नहीं दिखती.
-चित्तरंजन सिन्हा, पूर्व निदेशक, काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान
रंगों के नुकसान से ऐसे बचाएं अपनी त्वचा
होली खेलने के एक दिन पहले रात को ही त्वचा की मालिश करें. इसके लिए आप नारियल, बादाम या जैतून का तेल प्रयोग कर सकते हैं. सुबह जब होली खेलने जाएं तब भी त्वचा पर तेल लगाकर निकलें ताकि रंग त्वचा पर जमने न पाये. रंग खेलने के बाद अगर आपको त्वचा पर खुजली हो रही हो, तो एक मग में पानी लेकर उसमें 1 से दो चम्मच सिरका डालें और त्वचा पर लगाएं. मलाई में हल्दी मिलाकर त्वचा पर मसाज करें. इसके अलावा आप दही में शहद और हल्दी मिलाकर भी मसाज कर सकती हैं.

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