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बिहार के सभी गांवों में बिजली एक युगांतरकारी घटना
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक उपेक्षित दानापुर दियारे के गांवों के लोग इन दिनों बहुत खुश हैं. राज्य के अन्य गांवों के साथ-साथ उनके यहां भी बिजली पहुंच गयी है. इतनी जल्दी वे इसकी उम्मीद नहीं कर रहे थे. पर यदि केंद्र और राज्यों में काम करने वाली सरकारें हों तो कुछ भी असंभव नहीं. मुख्यमंत्री […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
उपेक्षित दानापुर दियारे के गांवों के लोग इन दिनों बहुत खुश हैं. राज्य के अन्य गांवों के साथ-साथ उनके यहां भी बिजली पहुंच गयी है. इतनी जल्दी वे इसकी उम्मीद नहीं कर रहे थे. पर यदि केंद्र और राज्यों में काम करने वाली सरकारें हों तो कुछ भी असंभव नहीं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2012 में ही कह दिया था कि यदि बिजली की स्थिति सुधार नहीं सकूंगा तो अगली बार वोट मांगने नहीं आऊंगा. उनका वायदा पूरा हुआ.
अब उपभोक्ताओं पर निर्भर है कि वे अपनी जिम्मेदारी निभाते जाएं. यानी, राज्य सरकार तो इस काम में लगी हुई थी ही, इस बीच केेंद्र की मोदी सरकार ने भी बिजलीकरण की गति तेज कर दी. इसका श्रेय केंद्र सरकार को मिल रहा है. याद रहे कि 15-20 साल पहले तक बिहार के अधिकतर गांवों और छोटे नगरों-बाजारों तक लोग बिजली के लिए तरसते थे.
कुछ साल पहले तक किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी कि इतनी जल्द बिहार के सभी गांवों में बिजली पहुंच जायेगी. सामान्य गांवों की बात कौन कहे, अब तो उपेक्षित दियारे के लोग भी बिजली का उपभोग कर रहे हैं. दियारे के गांवों में बिजली का प्रवेश एक ‘मिनी क्रांति’ की तरह है. अपने गांव जाने के रास्ते में मैं कई बार दानापुर दियारा होते हुए दिघवारा तक गया हूं. देख कर मन में यह विचार आता था कि इतनी अधिक और उपजाऊ जमीन का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है. बिजली पहुंचने के बाद अब इसकी संभावना बढ़ी है.
सिर्फ बेहतर सड़कों की अभी वहां कमी रह गयी है. बुनियादी सुविधाओं से वंचित दियारे के अनेक लोग आसपास के शहर-बाजार में जाकर बस गये हैं. बिजली आने के बाद अब उनमें से कुछ लोग घर वापसी की योजना बना रहे हैं, ऐसी खबर मिल रही है. घर वापसी का अपना ही सुख है. सड़क-बिजली उपलब्ध हो तो दियारे के मेहनती लोग वहां अपने बल पर भी परिवर्तन ला सकते हैं. बिजली सड़क तो विकास के इंजन है. कहा जाता है कि ‘अमेरिका ने सड़कें बनायीं और सड़कों ने अमेरिका को बना दिया.’
राजनीतिक कर्मियों के लिए पेंशन : देश की सभी भाजपा शासित राज्य सरकारें उन लोगों के लिए पेंशन देने की योजना बना रही हैं जो 1975-77 के आपातकाल में जेलोें में बंद थे.
हालांकि बिहार सहित दो-तीन राज्यों में पहले से ही यह सुविधा मिल रही है. इस संबंध में मेरी यह राय रही है कि ऐसे उन सभी राजनीतिक कर्मियों के लिए पेंशन की व्यवस्था होनी चाहिए चाहे वे जिस किसी दल के हों. इससे सांसद-विधायक फंड के ठेकेदारों का दबदबा राजनीति में घटेगा.
कुछ राजनीतिक दल धन्ना-सेठों से अरबों रुपये का चंदा लेते हैं. उनके कुछ नेता चार्टर प्लेन से चलते हैं. उन चंदों का किसी को हिसाब तक नहीं देते.
पर उनके ईमानदार कार्यकर्ता सौ-दो सौ रुपये के लिए तरसते हैं. या तो वे अपने घर से पैसे खर्च करें या फिर दलाली से पैसे कमाएं. ये अमीर दल हर जिले में अपने कुछ चुने हुए कार्यकर्ताओं को पार्टी फंड से गुजारा भत्ता क्यों नहीं देते?
राजनीतिक कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी : जदयू के एमएलसी डाॅ रणवीर नंदन ने अपने दल के कार्यकर्ताओं से अपील की है कि वे लोक शिकायत निवारण कानून को जन सेवा का अपना हथियार बनाएं. लोगों को बताएं कि इस कानून से किस तरह लोगों को राहत पहुंचायी जा सकती है. यह एक अच्छी सलाह है. ऐसे कामों से खुद कार्यकर्ताओं का सम्मान बढ़ता है.
जब मैं राजनीतिक कार्यकर्ता था तो यह काम किया करता था. सन 1969 में मैंने अपने गांव के छह भूमिहीनों को बासगीत का पर्चा दिलवाया था. अपने गांव में ऐसा काम थोड़ा कठिन होता है.
पर चूंकि उसमें से एक भूमिहीन को मेरी खुद की जमीन का पर्चा मिला था, इसलिए कोई विरोध नहीं हुआ. याद रहे कि उन दिनों कुछ प्रतिपक्षी दल अपने कार्यकर्ताओं को ऐसा काम करने का निर्देश देते थे. सत्ताधारी जदयू के लोग इस काम में लगें तो आम लोगों को और भी राहत मिलेगी. सरकारी घूसखारों पर जन दबाव नहीं है, इसलिए आम लोग परेशान रहते हैं. ऐसी परेशानी को राजनीतिक कार्यकर्ता दूर करा सकते हैं.
एक भूली-बिसरी याद : इन दिनों न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की खूब चर्चा हो रही है. पर इसके लिए कौन अधिक जिम्मेदार है? खुद न्यायपालिका या राजनीतिक, कार्यपालिका? इसका जवाब एक खास प्रकरण से मिल जाता है. वह प्रकरण है जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग का प्रकरण.
रामास्वामी के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे. 10 मई, 1993 को लोकसभा में सोमनाथ चटर्जी ने महाभियोग प्रस्ताव पेश किया था. कपिल सिब्बल ने लोकसभा में रामास्वामी के बचाव में छह घंटे तक बहस की. 11 मई, 1993 को महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहते हुए भी मतदान में भाग ही नहीं लिया. प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े.
ध्यान देने लायक बात यह रही कि महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा. यानी जिन सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया, वे लोग भी रामास्वामी के पक्ष में खड़े होने का नैतिक साहस नहीं रखते थे. जबकि कांग्रेस ने यह कहते हुए मतदान के लिए कोई व्हीप जारी नहीं किया था कि ऐसे मामले में लोकसभा को अर्ध न्यायिक निकाय के रूप में काम करना पड़ता है और सदस्योें की हैसियत जज की होती है. ऐसे में जजों को व्हीप के रूप में निर्देश कैसे दिया जा सकता है.
बेहतर हो कि कांग्रेस के सदस्य अपने विवेक के अनुसार ही मतदान करें. पर जज का रूप लिए लोग भी खुद को कुछ और ही साबित कर गये. हां, सुप्रीम कोर्ट ने रामास्वामी के प्रति वही रुख नहीं अपनाया जैसा सत्ताधारी दल कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने अपनाया. इस अंतर पर गौर करिए. महाभियोग से बचने के बावजूद रामास्वामी के साथ सुप्रीम कोर्ट में कोई जज बेंच में बैठने को तैयार नहीं हुआ.
अंततः 14 मई, 1993 को रामास्वामी ने सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा दे दिया. लोकसभा के स्पीकर के आग्रह पर न्यायाधीशों की ही कमेटी ने रामास्वामी के खिलाफ आरोपों की जांच की थी. 14 में से 11 आरोप सही पाये गये थे.
उसके बाद ही सदन में महाभियोग प्रस्ताव आया था. वह आजाद भारत का पहला मौका था जब किसी जज को पद से हटाने के लिए संसद में प्रस्ताव आया था. पर उस मौके को भी सत्ताधारी दल ने विफल कर दिया. यदि रामास्वामी को संसद के प्रस्ताव से हटा दिया जाता तो न्याय पालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार पर काबू पाने में सुविधा होती.
यह संयोग नहीं था कि उसे रामास्वामी ने 1999 में एडीएमके के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा. यह भी संयोग नहीं है कि उस दल की सर्वोच्च नेता जय ललिता को भ्रष्टाचार के आरोप में सजा हुई थी. यानी राजनीति के बीच के भ्रष्ट लोग चाहते हैं कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार बना रहे ताकि वे जरूरत पड़ने पर उसका लाभ उठा सकें.
और अंत में : एनसीआरईटी के पूर्व निदेशक व प्रसिद्ध शिक्षाविद् प्रो कृष्ण कुमार ने दिल्ली छोड़ दी. वे कई दशकों से वहां थे. पर बढ़ते प्रदूषण ने उन्हें दिल्ली छोड़ देने को मजबूर कर दिया.
बिहार के गांवों के पूर्ण विद्युतीकरण के बाद अब पटना के कुछ लोग भी इस प्रदूषित होते महानगर को छोड़कर अपने पुश्तैनी गांव की स्वच्छ हवा में जाकर बस सकते हैं. बिजली की अनुपस्थिति एक बड़ी समस्या रही है. बिहार में इस समस्या को पूरी तरह दूर किया जा रहा है.
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