वायरस बैक्टीरिया को देती है आमंत्रणकिस्त- तीन वायरल और हमछोटे कीटाणु के संक्रमण के बाद बड़े कीटाणु करते हैं आक्रमणविश्व स्वास्थय संगठन ने 15 वर्श पहले जारी की थी रिपोर्टएचआइवी का वायरस कालाजार व टीबी के बैक्टीरिया को देते हैं आमंत्रणएंटीबायोटिक्स के अधिक इस्तेमाल से कई दवाएं हो चुकी रेसिस्टवरीय संवाददाता, मुजफ्फरपुरवायरल संक्रमण के साथ बैक्टीरिया का पुराना रिश्ता है. एक बार वायरस का आक्रमण हो गया तो बैक्टीरिया भी अपना निशाना बना लेती है. यह बात ऐसी ही नहीं कही जा रही है. विश्व स्वास्थय संगठन ने 15 वर्ष पूर्व ही रिपोर्ट जारी कर कहा था कि जिन लोगों को एचआइवी है, उन्हें टीबी व कालाजार का संंक्रमण हो सकता है. जबकि ये दोनों बीमारियां बैक्टीरिया से होती है. उसी प्रकार कालाजार व टीबी के रोगियोंं को भी एचआइवी के संक्रमण का खतरा बना रहता है. विषेशज्ञों का कहना है कि वायरस यानी छोटा कीटाणु जब भारीर पर आक्रमण करता है तो बड़ कीटाणु बैक्टीरिया भी लोगों को अपना शिकार बना लेते हैं. एक बार जब भारीर पर बैक्टीरिया का आक्रमण हो जाये तो उससे बिना एंटीबायोटिक्स निजात नहीं मिल सकती. यदि इलाज के क्रम में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल सही तरीके से नहीं हुआ तो वह बैक्टीरिया भी दवा से लड़ने का माद्दा पैदा कर लेता है. फिर चाहे जितनी भी दवा खाये वह बैक्टीरिया मरता नहीं.रेसिस्ट हो जा रही एंटीबायोटिक्स दवाजरूरत से ज्यादा इस्तेमाल के कारण एंटीबायोटिक्स दवाएं भी रेसिस्ट हो रही है. इस संदर्भ में एमडी पाठ्यक्रम के तहत शोध करने वाले भाहर के वरीय फिजिशियन डॉ निशींद्र किंजल्क कहते हैं कि पहले मियादी बुखार (टायफायड) पैरेक्सीन व क्लोरोमाइसीन दवा से ठीक हो जाती थी. लेकिन इसका इतना अधिक इस्तेमाल हुआ कि 1975 तक यह दवा रेसिस्ट कर गयी. उसके बाद मियादी बुखार के लिए नयी दवा सिप्रोफलॉक्सासिन आयी. लेकिन यह दवा भी अधिक इस्तेमाल के कारण 1990 में रेसिस्ट हो गयी. इसके बाद इलाज के लिए नयी दवा ट्रैक्सोल इंजेकशन आया. अब इससे मियादी बुखार का इलाज हो रहा है, लेकिन यह दवा भी आने वाले समय में रेसिस्ट हो जायेगा. तब टायफायड के इलाज के लिए दवाओं के बारे में सोचना होगा. पिछले 10 वर्शों से दस नयी दवाओं का भी इजाद नहीं हुआ है. ऐसे में अगर हम बीमार होेते हैं तो दवाओंं का इस्तेमाल बड़ा संकट है. कालाजार की दवा भी हुई रेसिस्ट कालाजार के इलाज के लिए पहले एंटीमॉनी दवा दी जाती थी. लेकिन यह दवा भी रेसिस्ट कर गयी. उसके बाद रिसर्च के बाद नयी दवा पेंटामिडिन का इंजेकशन आया. इससे कालाजार का इलाज तो हुआ, लेकिन 50 फीसदी मरीजों को डायबिटीज होने लगा. इसके बाद इसे बंद कर दिया गया. अब एंफोटेरेसिन दवा से इसका इलाज किया जा रहा है. टीबी के प्रोटोजोआ के साथ ही ऐसा ही हुआ. पहले यह मर्ज छह महीने में ठीक हो जाता था. अब यह रेसिस्ट कर रहा है. जिसे हमलोग मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट कहते हैं. एमडीआर का इलाज 18 महीने का होता है. इसमें मरीजों को रुपये भी अधिक खर्च होते हैं. दवाओं की डोज कम होने से परेशानीबीमार लोग यदि डोज से कम दवा खाते हैं तो वह दवा रेसिस्ट कर जाती है. यानी वह कीटाणु से लड़ने की क्षमता प्राप्त कर लेती है. उसके बाद वह दवा बेअसर हो जाती है. विषेशज्ञों का कहना है कि कई कंपनियां भी ऐसी दवाएं बनाती हैं, जिसमें उसकी गुणवत्ता काफी कम होती है. वे रैपर पर तीन सौ एमजी लिखते हैं लेकिन दवा एक सौ एमजी ही होती है. इससे मरीज को जरूरत के अनुसार दवा नहीं मिल पाती. नतीजा बैक्टीरिया का सफाया नहीं हो पाता. मरीज अगर दवा खा भी लेता है तो उसका रोग नहीं जाता. फिर उसके लिए यह दवा बेअसर हो जाती है.
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वायरस बैक्टीरिया को देती है आमंत्रण
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