ठाकुरगंज : दशलक्षण पर्व के तहत सोमवार को उत्तम अकिंचन धर्म की पूजा की गई. इस अवसर पर भगवान की शांतिधारा के साथ पूजा अर्चना की गई. वहीं जयपुर से आये हुए पंडित जिन कुमार शास्त्री ने अकिंचन का अर्थ समझाते हुए कहा की-जगत में मेरा कुछ भी नहीं है. जो कुछ भी है, यहीं का है और यहीं पर छूट जाने वाला है. मैं इस जहां में अकेला आया हूं और अकेले ही मुझे चले जाना है. ये जो संसार का मेला दिख रहा है, यह सिर्फ दो दिन का है. मैं तो यहां मुसाफिर हूं
, मेरा यहां अपना कुछ नहीं है, मेरा यहां अपना कोई नहीं है. ये नाते-रिश्तेदार तो जब तक आंख खुली है, तब तक अपने दिखते हैं, आंख मूंदने के बाद तो आगे की यात्रा मुझे अकेले ही करना है. सब छूटने वाले हैं या फिर छोड़ने वाले हैं. कोई इस जीव के न साथ जाता है, न आता है. इसलिये मैं कहता हूं, जीवन साथी तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन जीव का साथी कोई नहीं मिल पाता है. जीव को अपनी यात्रा एकाकी ही करनी होती है. इस एकाकीपन की साधना का नाम ही अकिंचन धर्म है. पंडित जी के अनुसार जो इस प्रकार के भाव को धारण करता है, वह परिग्रह से रहित निष्परिग्रही दिगम्बरत्व से सम्पन्न हो जाता है.
जैन साधु इस भाव के कारण ही लंगोट तक का परिग्रह छोड़ दिगम्बर हो जाते हैं, क्योंकि अकिचन भाव में जरा सी लंगोट भी बाधा पहुंचाती है. कहा भी है- एक लंगोट की ओट मन में अनन्त खोट पैदा कर देती है. अतः मन की खोट को मिटाने के लिये तन की लंगोट हटाकर मन के विकारों का परित्याग कर दिगम्बर होना जरूरी है. नग्नता विकारों के त्याग से प्रगट होती है, इसलिये पूज्य है, पवित्र है. वहीं इस दौरान मोहन जैन ने बताया की अभी तक हमने क्षमा धारण करते हुए आर्जव, मार्जव, सत्य के लक्षणों को धारण करते हुए धर्म की ओर बढ़ गए है. पर्व के अवसर पर दिगंबर जैन समाज के दो महिलाओं के दस दिन के उपवास रखे जाने की जानकारी उन्होंने दी .