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ब्रिटिश हुकूमत में लगायी गयी थीं फैक्टरियां, अपनी सरकारों में हुईं बंद, अब है चुनावी मुद्दे

विधानसभा चुनाव में बंद फैक्टरियों को चलाने और घर में ही रोजगार का इंतजाम कराने की डिमांड हो रही.

गोपालगंज : चुनाव की बिगुल बज चुकी है. अब तक के चुनावों से इस बार इतर जंग की संभावना है. कोरोना की संकट में नौकरी गवां चुके युवाओं को घर में रोजगार नहीं होने के कारण वे अवसाद में जी रहे. परिवार का खर्च चलाने की जिम्मेदारी है. ऐसे में विधानसभा चुनाव में बंद फैक्टरियों को चलाने और घर में ही रोजगार का इंतजाम कराने की डिमांड हो रही. कोरोना के कारण हरियाणा के गुडगांव के लेदर कंपनी से निकाले गये मीरगंज के रहमत अंसारी को इस बात का मलाल है कि अपने यहां की कंपनी बंद नहीं हुई रहती तो शायद यहां काम मिल जाता.

बंद होती फैक्टरियां चुनावी मुद्दा भी बनी

बंद फैक्टरियों को चालू कराने के लिए अबतक माननीयों के स्तर पर कोई कदम नहीं उठाये गये. बंद होती फैक्टरियां चुनावी मुद्दा भी बनी. राजनीतिक दलों के तरफ से सिर्फ आश्वासन की घुट्टी देकर युवाओं को पिलायी किया जाता रहा. कंपनियों के बंद होने के बाद यहां के युवाओं को भी रोजगार के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, यूपी, मुंबई, महाराष्ट्र, केरल, आंध्र, हिमांचल, कश्मीर, कोलकाता जैसे प्रदेशों में जाकर काम करना पड़ा. कोरोना संकट ने आज फिर इनके हाथों से रोजगार छिन लिया. अपने जान की परवाह नहीं कर प्रदेशों से जख्म लेकर घर लौटने को मजबूर हो गये. अब वे अपने घर में रोजी-रोटी की तलाश है. ऐसे में विधानसभा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा रोजगार भी बन कर खड़ा है. बंद कंपनियों को संजीवनी देकर चलवाने या नयी इंडस्ट्री लगाने के प्रति कभी कोई प्लानिंग हुआ ही नहीं. परदेस से लौटे प्रवासियों के कारण यह चुनाव काफी गंभीर हो गया है.

पेपर मिल ने छिन लिया हजारों हाथ से काम

सासामुसा में ब्रिटिश हुकूमत में 1932 में सासामुसा चीनी मिल के अलावे बघउच रोड में रेलवे ढाला के पास एमए पेपर मिल, एनएच-28 के पास एचए पेपर मिल का स्थापना हुआ. इन फैक्टरियों में 52 सौ से अधिक मजदूर व कर्मी तीन शिफ्ट में काम करते थे. दोनों कंपनियां 1991 व 1995 में बंद हो गयी. दोनों पेपर मिल में काम करने वाले लगभग 33 सौ परिवार के हाथ से रोटी छिन गया. कुचायकोट प्रखंड के सिरिसियां के अलाउद्दीन सासामुसा के एचए पेपर मिल में फीटर के रूप में कार्य कर रहे थे. परिवार की जिम्मेदारी भी उनके ही कंधे पर ही था. 1995 में फैक्टरी बंद हुई तो बच्चों की पढ़ाई बंद हो गयी. फैक्टरी के चालू होने की उम्मीद में अलाउद्दीन अपना जीवन गुजार दिये. अब पंचायत में मनरेगा के मजदूर बनकर काम कर रोटी चला रहे.

बंद हो गयी हथुआ की वनस्पति फैक्टरी

19 सितंबर 1979 में 30 एकड़ जमीन सरकार से लीज पर लेकर हथुआ राज ने वनस्पति फैक्टरी लगाया. कुछ ही दिनों में फैक्टरी सफाई के नाम पर बंद हुई तो ताला लग गया. मजदूर कंपनी के खुलने का इंतजार करते रह गये. कंपनी नहीं खुली. और अधिकतर लोगों का परिवार दाने-दाने को मुहताज हो गया. ठीक उसी तरह मीरगंज में अल्युमुनियम व कूट फैक्टरी भी ब्रिटिश हुकूमत में लगी जो 1990 के दशक में बंद हो गयी.

posted by ashish jha

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