दरभंगा : एमआरएम कॉलेज में रविवार को भारतीय दर्शन के विकास में मिथिला का योगदान विषय पर यूजीसी संपोषित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन लनामिवि के कुलपति प्रो साकेत कुशवाहा ने दीप प्रज्वलित कर किया. इसका आयोजन एमआरएम कॉलेज के दर्शन विभाग एवं सीएम कॉलेज के संस्कृत विभाग के संयुक्त तत्वावधान में किया गया.
उद्घाटन सत्र को बतौर उद्घाटनकर्ता कुलपति प्रो कुशवाहा ने न्याय सूत्रकार महर्षि गौतम तथा ग्रीक के तर्क शास्त्रीय अरस्तु में तुलना प्रस्तुत करते हुए कहा कि अरस्तु का सिद्धांत तार्किक रूप से अपूर्ण है जबकि गौतम का सिद्धांत पंचावयव अनुमान के कारण पूर्ण है. उन्होंने कहा कि महर्षि गौतम ने ही न्यायसूत्र के प्रथम सूत्र में 16 पदार्थों को रेखांकित किया है जो आधुनिक रिसर्च मेथोडोलॉजी का आधार है.
प्रो कुशवाहा ने विशेष रूप से दर्शन के छात्रों को एवं अन्य विषयों के शोधार्थियों को भी इस तथ्य को समझने के लिए प्रेरित किया. भारतीय दर्शन मेंं चिंतन और जीवन को एक साथ संचालित होने की परंपरा की ओर इंगित करते हुए कहा कि सिद्धांत और आचरण में सामंजस्य होना जरूरी है. उन्होंने शिक्षकों को परामर्श दिया कि उन्हें अपने आचरण और शिक्षा के द्वारा छात्रों की नैतिक उन्नति करनी चाहिए.
कासिंद संस्कृत विवि के कुलपति डॉ देवनारायण झा ने बतौर मुख्य अतिथि कहा कि मिथिला का दर्शन ही वास्तव में भारतीय दर्शन है. क्षय आस्तिक संप्रदायों में चार सूत्रकार मिथिला के हैं. शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत पर वाचस्पति मिश्र ने भामति टीका लिखकर इसे संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध किया. मिथिला के दार्शनिक इतिहास का विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद, पुराण आदि से लेकर आधुनिक काल में भी डॉ गंगानाथ झा, बच्चा झा, हरिमोहन झा, जयमंत मिश्र, बालकृष्ण मिश्र आदि के कारण दर्शन के क्षेत्र में मिथिला का योगदान अविस्मरणीय है.
दर्शन के क्षेत्र में छात्रों की कमी पर चिंता भी जतायी. इस कमी की ओर मिथिला के लोगों को ध्यान देने की जरूरत बतायी. प्रतिकुलपति डॉ नीलिमा सिन्हा ने नव न्याय का विश्लेषण करते हुए कहा कि तत्व चिंतामणि ग्रंथ पर संपूर्ण विश्व में 500 से अधिक सालों तक लगातार चिंतन और मंथन होता रहा. इसके रचनाकार गंगेश उपाध्याय के इस ग्रंथ के कारण शास्त्रों की प्रतिपादन से संबंधित नेमिशैली विकसित हुई जो आज दुनिया के सभी विषयों में प्रत्यक्ष अथवा प्रवारांतर से प्रयुक्त होती है.
उन्होंने मिथिला के योगदान पर विस्तार से प्रकाश डाला. विषय प्रवर्त्तन करते हुए दर्शन विभागाध्यक्ष डॉ अमरनाथ झा ने कहा कि मिथिला का दार्शनिक अवदान वृहदारण्येक उपनिषद के याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी के संवाद से प्रारंभ होता है, जिसमें मैत्रेयी ने अपने पति याज्ञवल्क्य द्वारा दिये गये संपदा को अस्वीकार करते हुए ब्रहृमज्ञान देने का अनुरोध किया था.
उन्होंने कहा कि दर्शन की धारा में निरंतरता होनी चाहिए. हमें यथास्थितिवाद का पोषक नहीं होना चाहिए. प्रतित्व गतिशील होकर नये दर्शन के उत्थानों को विकसित करना चाहिए. कवि दार्शनिक विद्यापति की चर्चा करते हुए कहा कि महर्षि श्री अरविंद तथा गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर दोनों के ही दार्शनिक सिद्धांतों में महाकवि विद्यापति प्रेरक रहे हैं.
डॉ झा ने जय-जय भैरवि मेंं प्रयुक्त सुमति शब्द का उल्लेख करते हुए कहा कि विद्यापति ने वरदान के रूप में भौतिक संपदा, यश अथवा अधिकार की याचना नहीं की, बल्कि उन्होंने वरदान के रूप में सहज सुमति की याचना की. कर्नाटक से बतौर मुख्य वक्ता के रूप में भाग लेने आये सत्यनारायण मजूमदार ने याज्ञवल्क्य की तपोभूमि मिथिला के जगवन के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि उसे देखकर लगता है कि मिथिला आध्यात्मिक भूमि है.
इसी भूमि से प्रभावित होकर उन्होंने जगवन में परिवार और मित्रों के सहयोग से याज्ञवल्क्य के स्मारक का भी निर्माण करवाया. वहीं तिरूपति से भाग लेने आये राधाकांत ठाकुर ने कहा कि मिथिला के दार्शनिकों के कारण संपूर्ण विश्व में आज भी सम्मानित होते हैं. यह दु:खद विषय है कि मिथिला के लोग इस दार्शनिक विरासत को भूलते जा रहे हैं.
कार्यक्रम के दौरान महाविद्यालय की स्मारिका ‘प्रणय’, सत्यनारायण मजूमदार द्वारा हिंदी में अनुवाद किया गया ‘दिव्य सांनिध्य’ एवं सेमिनार से संबंधित प्रोसिडिंग भाग-1 का संकलित पत्रिका ‘तत्वमसि’ का लोकार्पण मंचासीन अतिथियों के द्वारा उद्घाटन सत्र के दौरान किया गया. उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता प्रधानाचार्य डॉ विद्यानाथ झा ने किया.
कार्यक्रम का संचालन डॉ पुनीता झा, स्वागत दर्शनशास्त्र के विभागाध्यक्ष डॉ शिखरवासिनी एवं धन्यवाद ज्ञापन डॉ आरएन चौरसिया के द्वारा किया गया.