अपडेट ::: अब कौन बांचेगा महुआ घटवारिन का दर्दतसवीर सुरेंद्रतिस्ता नदी से महुआ घटवारिन तकये हैं हमारे भूपेन हजारिकासंजीव, भागलपुरएक थे भूपेन हजारिका. वे लिखते थे, गाते थे, बाजा भी बजाते थे और एक हैं भगवान प्रलय जो चलते-फिरते एक समूची लोक गाथा हैं. इनको सुनना, देखना, इनसे मिलना एक नयी दुनिया से रूबरू होना है. एक शब्द गूंजता है, एक लय लरजती है, एक भाव तैरता है और बन जाता है भगवान प्रलय. इनको सुनते हुए आपको भूपेन हजारिका की याद ताजा हो जायेगी. उनके गीतों में गंगा है, तिस्ता है, ब्रह्मपुत्र है और अपने प्रलय दा के गीतों में महुआ घटवारिन है, कारी कोसी है और है एक पूरी लोक चेतना से आवृत खनकता संगीत. लंबे बाल, थोड़ा लंबोतरा चेहरा पर एक तेज. वे गाते हैं और पूछते भी हैं कि अब महुआ घटवारिन कौन गायेगा. कौन बांचेगा नैका बनजारा, राय-रणपाल की गाथा. कौन सुनायेगा रानी सारंगा की कहानी. मेरी आंखों से पूछिये. आपको जवाब भी मिल जायेगा. वे रोते हैं एक अदद किस्सा के लिए नहीं, पूरा-पूरी एक सभ्यता के लिए. ……………………………………………………………………..कटिहार जिले के कुरसेला के महेशपुर गांव के रहनेवाले 80 सावन देख चुके प्रलय दा की तान में आज भी जवानी है. उनकी बांसुरी और सारंगी की धुन, डंफा, डफली, नाल व ढोलक पर ताल इनकी संपूर्णता को दर्शाती है. इनके खुद के लिखे लोक गीत ‘पिन्हबै पायल झनकौवा, ननद तोरो भाय ऐथौं’ जहां पति-पत्नी के बीच विरह, मिलन, प्रेम आदि का श्रृंगार लिये हुए है, वहीं ‘कंगना रसै-रसै बोलै’ लोक गीत महिलाओं को अधिकार देने की वकालत करता है. प्रलय दा का एक गीत समाप्त नहीं होता, दूसरा शुरू हो जाता है. कारी कोसी की तरह, कभी उमड़ते…कभी घुमड़ते. बीच-बीच में अपने गीतों का मतलब समझाते हुए आगे बढ़ते हैं और ‘पातरो ठोर रंगैने दिल्ली, सौंसे पान चिबाव रे, एनोठी से डंफा झाड़ी-झाड़ी के बजाव रे’ गाते हुए चुनाव में पहली बार जीत कर संसद भवन तक पहुंचने की कहानी और वर्तमान हालात नेताओं पर प्रहार करते हैं. ठहराव तो शायद प्रलय दा में जैसे है ही नहीं, लोक गीत के माध्यम से बाढ़ का दर्द, लहूलुहान कश्मीर की पीड़ा, आज के हीर-रांझा के प्रेम में स्वार्थ की घुसपैठ को बयां करते हुए पूरे भारतवर्ष के युवाओं में संभलने की चेतना जगाता है. अररिया के रानीगंज, अभयनगर, फारबिसगंज, पूर्णिया के कला भवन सहित कई अन्य जिलों में गीत गाते, बांसुरी बजाते कभी मंच से लोगों को उत्साह से भरने, तो कभी मचान व दलान पर महफिल जमा देने की प्रतिभा से संपन्न प्रलय दा उम्र के इस पड़ाव पर दुखी नजर आते हैं. कहते हैं कि कोई नहीं मिला, जो लोक गाथा को लेकर आगे बढ़े. दूसरी ओर कहते हैं कि लोक साहित्य को शाब्दिक रूप से ही संरक्षित रखा जाये, तो यह बच सकता है. वरना कंप्यूटराइज किया, तो डिलीट होने की संभावना रहती है. खुद को थोड़ी आस बंधाते हुए कहते हैं कि कुछ युवा मिले हैं, जिनमें लोक गाथा को संजोने का भाव दिखा.
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अपडेट ::: अब कौन बांचेगा महुआ घटवारिन का दर्द
अपडेट ::: अब कौन बांचेगा महुआ घटवारिन का दर्दतसवीर सुरेंद्रतिस्ता नदी से महुआ घटवारिन तकये हैं हमारे भूपेन हजारिकासंजीव, भागलपुरएक थे भूपेन हजारिका. वे लिखते थे, गाते थे, बाजा भी बजाते थे और एक हैं भगवान प्रलय जो चलते-फिरते एक समूची लोक गाथा हैं. इनको सुनना, देखना, इनसे मिलना एक नयी दुनिया से रूबरू होना […]
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