।। प्रदीप कुमार गुप्ता ।।
धोरैया : संचार क्रांति के इस दौर में मोबाइल और इंटरनेट का प्रचलन तेजी से बढ़ चुका है. मोबाइल के बढ़ते प्रयोग ने चिट्ठियों के युग को करीब-करीब समाप्त ही कर दिया है. हालांकि चिट्ठियों की संख्या मे बेतहाशा कमी होने के बावजूद डाकघरों का वजूद आज भी जिंदा है. मनीआर्डर की सेवा गांवों में डाकघर के वजूद को कायम रखने में सहयोगी साबित हो रहा है
ग्रामीण इलाकों की बड़ी आबादी आज भी पलायन के कारण दूसरे राज्यों में रह कर रोजी-रोटी की तलाश कर रही है. दिल्ली, गुजरात, मुंबई और पंजाब जैसे राज्यों मे बिहारियों की बड़ी तादाद है. अनुमान के मुताबिक विभिन्न क्षेत्र के 25 फीसदी से अधिक युवा कामकाज की तलाश में दूसरे राज्यों में रह रहे हैं.
बताया जाता है कि परदेश में की गयी कमाई का एक हिस्सा वे अपने परिजनों को मनीऑर्डर के माध्यम से ही भेजते हैं. इसे पाने के लिए परिजन डाकघर पर ही निर्भर हैं. हालांकि मनीऑर्डर से रकम आने में बैंकों की तुलना में अधिक वक्त लगता है. लेकिन कई इलाके में दूसरा साधन नहीं होने के कारण लोगों की निर्भरता डाकघरों पर ही कायम है. सूत्रों की मानें तो इन इलाकों मे बैंक शाखाओं का घोर आभाव रहने के कारण अधिकांश ग्रामीण बैंकों से अपरिचित हैं.
प्रखंडों में मौजूद बैंकों की शाखायें भी सही तरीके से कारगर साबित नहीं हो रही हैं. लिहाजा 15 से 20 किलोमीटर का सफर तय कर मुख्यालय पहुंचना लोगों के लिए परेशानी का सबब होता है. बैंकों में कामकाज में देरी और गांवों में साक्षरता का अभाव भी एक बड़ी वजह है, जिस कारण अधिकांश लोग बैंक से अनजान हैं. लिहाजा पोस्ट ऑफिस ग्रामीणों के लिए बेहतर विकल्प है. डाकघर के कर्मियों की मानें तो यहां आने वाला अधिकांश मनीऑर्डर सुदूर गांवों से ही जुड़ा होता है.