– मिथिलेश –
– जदयू व जेवीएम में गंठबंधन
– वाम दलों का साथ भी संभव
भाजपा की छतरी के नीचे उपेंद्र कुशवाहा
राजद-कांग्रेस का तालमेल तय, लोजपा भी रहेगी साथ
पटना : कड़ाके की ठंड में राज्य का राजनीतिक पारा चढ़ने लगा है. तीन माह बाद होनेवाले लोकसभा चुनाव को लेकर सियासी गोलबंदी शुरू हो गयी है. सीटों के लिहाज से दोनों बड़ी पार्टियों जदयू व भाजपा के इर्द-गिर्द छोटे दल सरकने लगे हैं.
भाजपा ने साफतौर पर उपेंद्र कुश्वाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के साथ तालमेल करना स्वीकार किया है. इस गंठबंधन के मुकाबले वाम दलों की निकटता जदयू की तरफ दिख रही है.
जदयू ने झारखंड में पांव पसारने और उसका राजनीतिक लाभ बिहार से लगी सीटों पर लेने के लिए बाबूलाल मरांडी की झारखंड विकास मोरचा के साथ तालमेल करने का निर्णय लिया है. सोनिया गांधी व राहुल गांधी के साथ मुलाकात के बाद राजद व कांग्रेस के चुनावी गंठबंधन पर मुहर लगती दिख रही है.
शनिवार को रामविलास पासवान की सोनिया गांधी से भेंट के बाद लोजपा के भी इस गंठबंधन से बाहर रहने की अटकलें खारिज होती दिख रही हैं. हालांकि, पासवान के साथियों में अब भी राजद के साथ चुनावी तालमेल को लेकर विरोध है.
आठ साल पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खास रहे राष्ट्रीय लोक समता पार्टी नेता उपेंद्र कुशवाहा इन दिनों जदयू के खिलाफ ताल ठोक कर खड़े हैं. उस समय जदयू बिहार में सत्ता में नहीं था.
पहली बार विधायक बने उपेंद्र कुशवाहा बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता थे. उपेंद्र धन-बल से पिछड़े वर्ग में यादव और कुर्मी के बराबर माने जानेवाली कुशवाहा बिरादरी से आते हैं. इस वर्ग में शकुनी चौधरी और नागमणि दो पुराने स्थापित नेता हैं, जो जदयू विरोधी खेमे में हैं. बावजूद इनके अब तक के चुनावों में कुशवाहा समाज का वोट जदयू को मिलता रहा है.
कुशवाहा समाज में सत्ता में भागीदारी को लेकर कशमकश है. जदयू और भाजपा अधिक से अधिक इस तबके को राजनीतिक हिस्सेदारी देकर वोट हासिल करने की कोशिश कर रही है.
जहां तक उपेंद्र कुशवाहा का मामला है, उनका रुख लचीला रहा है. प्रदेश में जदयू-भाजपा की सरकार बनने के बाद वे जदयू से अलग हो गये थे. कुछ दिनों बाद वे जदयू में लौटे और उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया. 2010 के विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी जदयू से फिर नाराजगी झलकी.
अब वे जदयू के खिलाफ भाजपा और राजद दोनों के संपर्क में हैं. भाजपा ने तालमेल के लिए हां तो क ही है, लेकिन सब कुछ सीटों की संख्या पर निर्भर करता है. भाजपा की नजर राज्य की चालीस सीटों पर है. सवर्ण मतदाताओं के अलावा पिछड़ी व अतिपिछड़ी जातियों की गोलबंदी की कोशिश हो रही है. उपेंद्र कुशवाहा के साथ समझौते को इसी दायरे में देखा जा रहा है. इधर, जदयू भी कुशवाहा समाज क पार्टी के साथ बांधे रखने के लिए पूरी कोशिश कर रहा है.
सरकार में इस बिरादरी के दो सदस्य रेणु कुशवाहा और अवधेश प्रसाद कुशवाहा प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. काराकाट के सांसद महाबली सिंह व वाल्मिकीनगर के सांसद वैद्यनाथ प्रसाद महतो भी इसी वर्ग से हैं. इनके अलावा नोमिनेशन कोटे से विधान परिषद और अप्रैल में होनेवाले राज्यसभा चुनावों में भी उनकी मजबूत हिस्सेदारी मानी जा रही है. खास यह कि इस वर्ग के एक चर्चित नेता के जदयू के संपर्क में होने की चर्चा है.
जदयू के झारखंड विकास पार्टी के साथ समझौते के भी कई राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं.
झारखंड में जदयू अब तक भाजपा की बी टीम बन कर चुनाव लड़ती रही है. भाजपा से अलगाव के बाद जेवीएम के रूप में उसे झारखंड में बड़ा समर्थन हासिल हो सकता है. इससे लोकसभा चुनाव बाद जदयू ऐसी ताकतों को गोलबंद कर एक नया फ्रंट खड़ा कर सकता है. सूत्रों के मुताबिक जेवीएम से तालमेल का सीधा असर बिहार से लगी सीटों पर भी पड़ेगा. जदयू को वाम दलों की ताकत भी मिल सकती है. भाकपा व माकपा ने इसका संकेत दिया है, लेकिन भाकपा माले इसका कड़ा विरोध कर रही है.