ध्यान कुछ ऐसा है, जिसका उस तरह से अभ्यास नहीं किया जा सकता, जिस तरह आप वायलिन या पियानो बजाने का अभ्यास करते हैं. आप अभ्यास करते हैं अर्थात् आप पूर्णता के किसी खास स्तर पर पहुंचना चाहते हैं. पर, ध्यान में कोई स्तर नहीं है, कुछ पाना नहीं है.
इसलिए ध्यान कोई चेतन या जान-बूझ कर किया जानेवाला कर्म नहीं है. ध्यान वह है, जो पूरी तरह से बिना किसी दिशा निर्देशन के है, इसके लिए मैं अचेतन शब्द का प्रयोग कर सकता हूं. यह जान-बूझ कर की गयी प्रक्रिया नहीं है. इसे यहीं छोड़ दें. हमारी बुद्धि में अवकाश नहीं है. दो प्रयासों के बीच, दो विचारों के बीच अवकाश है, लेकिन यह अब भी विचार की परिधि में है. इसलिए अवकाश क्या है? क्या अवकाश में समय भी रहता है? अथवा क्या समय में सारा अवकाश शामिल है? हमने समय के बारे में बातचीत की.
यदि अवकाश में समय है, तब तो यह अवकाश नहीं है? यह तो घिरा हुआ और सीमित है. अतः क्या बुद्धि समय से मुक्त हो सकती है? यह महत्वपूर्ण प्रश्न है. यदि जीवन, सारा जीवन ‘अब’ में समाया है, तो आप देख पा रहे हैं कि इसका आशय क्या है? सारी मानवता आप हैं. सारी मानवता- क्योंकि आप दुखी हैं, वह दुखी है. उसकी चेतना आप हैं, आपकी चेतना, आपका होना है. यहां ‘आप’ या ‘मैं’ जैसा कुछ नहीं है, जो कि अवकाश को सीमित करे. अतः क्या समय का कोई अंत है? घड़ी का समय नहीं, जिसकी चाभी आप भरते हैं और जो बंद हो सकती है, बल्कि समय की समग्र गति. समय गति है, घटनाओं का एक समूह है. विचार भी गतियों का समूह हैं. इस तरह समय विचार है, अतः हम यह कह रहे हैं.
क्या विचार का अंत है? जिसका आशय है: क्या ज्ञान का अंत है? क्या अनुभव का अंत है? अनुभव का अंत ही पूर्ण मुक्ति है, और यही है ध्यान. न कि कहीं जाकर बैठना और देखना ध्यान है. ध्यान के लिए बुद्धि की ही नहीं, बल्कि गहरी अंतर्दृष्टि की भी आवश्यकता होती है. भौतिकविद्, कलाकार, चित्रकार, कवि आदि सीमित अंतर्दृष्टि रखते हैं- सीमित और छोटी अंतर्दृष्टि. हम समयातीत अंतर्दृष्टि की बात कर रहे हैं. यही है ध्यान, यही है धर्म और यदि आप चाहें, तो शेष दिनों के लिए यही है जीने का मार्ग.
– जे कृष्णमूर्ति