एक माता के भीतर अनंत क्षमा और दया की शक्ति होती है. उसके बालक गलत हो सकते हैं, पर माता कभी गलत नहीं हो सकती. एक मां के लिए उसके सारे बच्चे प्रिय होते हैं. एक माता और उसकी संतान में जो संबंध होता है, वह बहुत गहरा होता है. एक पिता की तुलना में मां अपने बच्चे के अधिक करीब होती है. भारत के मनीषियों ने परमात्मा को माता कहा है.
उसके पीछे कारण थे और वह गहरे कारण यह थे कि पिता चिह्न है अहंकार का और दंड का. माता चिह्न है करुणा, दया और क्षमा का. जब स्त्री की पूजा शुरू हुई, तो उसके पीछे भी बहुत गहरे मनोवैज्ञानिक कारण थे. साधारणत: मनुष्य का मन अपनी माता से अधिक करीब होता है और पिता से अक्सर दूर. पिता के साथ संबंध एक दाता का है, जो वस्तुओं और सामग्री को उपलब्ध कराता है. जिसकी शक्ति घर और घर में रखी सामग्रियों तक सीमित है. पर माता की शक्ति उस घर में रहने वाले परिवार के सभी सदस्यों के मन तक होती है. इसलिए ऋषियों ने पहले ‘त्वमेव माता’ कहा, फिर कहा ‘च पिता त्वमेव’. इसका अर्थ है- हे प्रभु! आप ही हमारी मां हैं और आप ही हमारे पिता हैं.
देवी के यह तीन स्वरूप सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, और संहारकर्ता है. और इन्हीं तीन रूपों को विशिष्टता से नवरात्रों के दिनों में देवी-पूजन किया जाता है. तंत्र का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है, वह है- कर्मकांड और थोड़े-बहुत भेदों के साथ शिवतंत्र, शास्त्रतंत्र और वैष्णव तंत्र- ये तीन मुख्य तंत्र की साधनाएं हैं. इन साधनाओं को करने की विशेष विधि, तिथि तथा व्यवस्था है. उस कालातीत परब्रह्म के साथ एकीकार होने से पूर्व इस मन को शक्ति के साथ एकीकार किया जाता है. जब मनुष्य के मन में धारणा, एकाग्रता की शक्ति पूर्ण हो जाती है, तो यही परिपक्व होकर ध्यान में परिवर्तित हो जाती है और ध्यान की परिपक्व अवस्था को ही समाधि कहा जाता है.
मूल प्रकृति जिससे यह मन व पदार्थ और भौतिक जगत हुआ है, उस मूल शक्ति की ओर अपनी अंतर्यात्रा को बढ़ाना नवरात्रि का विशिष्ट आध्यात्मिक लक्ष्य है. नवरात्रि वह पर्व है, जिस पर्व में हम अपने अंतर में मौजूद उस पराशक्ति के साथ एकीकार होने का परिश्रम प्रयास करते हैं.
– आनंदमूर्ति गुरु मां