वाणी की शक्ति का जीवन के उत्कर्ष-अपकर्ष में कितना अधिक योगदान है, इसकी जानकारी किसी गूंगे और ओजस्वी वक्ता की स्थिति की तुलना करके देखने से मिल सकती है. संभावना का आदान-प्रदान कितना प्रभावी है, इसका इसलिए पता नहीं चलता कि वह ढर्रा सहज अभ्यास से चलता रहता है और हम उससे कुछ विशेष निष्कर्ष नहीं निकाल पाते.
यदि हम किसी मूक योनि के प्राणी रहे होते और बातचीत का आनंद एवं लाभ लेनेवाले मनुष्य की सुविधा का लेखा-जोखा लेते, तो पता चलता कि यह कितनी बड़ी उपलब्धि है. मुख का अग्नि चक्र स्थूल रूप से पाचन का, सूक्ष्म रूप में उच्चारण का और कारण रूप से चेतनात्मक दिव्य प्रवाह उत्पन्न करने का कार्य करता है. उसके तीनों कार्य एक से एक बढ़ कर है. पाचन और उच्चारण की महत्ता सर्वविदित है. शब्दों का उच्चारण मात्र जानकारी ही नहीं देता, वरन उनके साथ अनेकानेक भाव अभिव्यंजनाएं, संवेदनाएं, प्रेरणाएं एवं शक्तियां भी जुड़ी होती हैं.
यदि ऐसा न होता, तो वाणी में मित्रता एवं शत्रुता उत्पन्न करने की सामर्थ्य न होती. दूसरों को उठाने-गिराने में उसका उपयोग न हो पाता. कटु शब्द सुन कर क्रोध का आवेश चढ़ आता है और न कहने योग्य कहने और न करने योग्य करने की स्थिति बन जाती है. चिंता का समाचार सुन कर भूख-प्यास और नींद चली जाती है. शोक संवाद सुन कर मनुष्य अर्धमूíर्छित जैसा हो जाता है. तर्क, तथ्य, उत्साह एवं भावुकता भरा शब्द प्रवाह देखते-देखते जन समूह का विचार बदल देता है और उस उत्तेजना से सम्मोहित मनुष्य कुशल वक्ता का अनुसरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं.
द्रौपदी ने थोड़े से व्यंग-उपहास भरे अपमानजनक शब्द दुर्योधन से कह दिये थे. वाणी का काम जानकारी देना भर नहीं है. शब्द प्रवाह के साथ-साथ उनके प्रभावोत्पादक चेतन तत्व भी जुड़े रहते हैं और वह ध्वनि कंपनों के साथ जहां भी टकराते हैं, वहां चेतनात्मक हलचल उत्पन्न करते हैं. शब्द को पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर भौतिक तरंग स्पंदन भी कहा जा सकता है, पर उसकी चेतना को प्रभावित करनेवाली संवेदनात्मक क्षमता की भौतिक व्याख्या नहीं हो सकती. वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक है.
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य