छठ की छटा : बिहार की मजबूत विरासत का हो रहा विस्तार
राजकुमार असिस्टेंट प्रोफेसर, श्यामलाल कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
सूर्योपासना का पर्व छठ दरअसल प्रकृति की अनंत, अक्षय विराटता की उपासना है. कभी क्षेत्रीय स्तर पर मनाया जानेवाला यह लोकपर्व अब वैश्विक पहचान बनाने लगा है. यही नहीं पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित भी हो रहा है. लेकिन, खास बात यह है कि ग्लोबल दुनिया में छठ की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं एवं स्थापनाएं पूर्ववत हैं और विरासत का विस्तार हो रहा है.
ग्लोबल दुनिया में बिहार का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करने वाला महापर्व छठ है. यह पर्व बिहार की अस्मिता को अलग पहचान देता है. होली, दशहरा, दिवाली जैसे हिंदू पर्व – त्योहार राष्ट्रीय स्तर पर मनाये जाते हैं और यह हिंदुस्तान का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करते हैं. क्षेत्रीय स्तर पर जैसे ओणम केरल का, गरबा गुजरात का और पोंगल तमिलनाडु का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करते हैं, वैसे ही छठ बिहार का प्रतिनिधित्व करता है. हिंदुस्तान की बहुसांस्कृतिक पार्विक सहिष्णुता और जनतांत्रिकता का एक चमकदार आख्यान इसके भीतर बनता है.
ग्लोबल दुनिया में छठ एक पर्व है. बिहार की एक संस्कृति और धार्मिक भाव. इससे आगे बिहारी अस्मिता और राजनीति का प्रतीक भी. इसका अपना एक अर्थशास्त्र भी है. जैसे दिवाली हिंदुस्तान की आर्थिक व्यापार और गतिशीलता को गति देते हैं, वैसे ही छठ बिहार के संवेदी सूचकांकों को ऊपर उठा देता है. इससे बाजार को गतिशीलता मिलती है.
यह पर्व बिहार की परिधि से सटे देश एवं राज्यों विशेषकर नेपाल, झारखंड और पूर्वी उत्तरप्रदेश में भी उसी श्रद्धा, भक्ति, उत्साह एवं धूम से मनाया जाता है, जैसे बिहार में. वर्षों वर्ष से क्षेत्रीय स्तर पर मनाया जाने वाला यह पर्व पिछले पच्चीस – तीस वर्षों में वैश्विक पहचान बनाने लगा है. बिहारवासी देश एवं विदेश के जिन -जिन कोनों तक व्यापार, रोजगार, नौकरी, शिक्षण के लिए पहुंचे हैं, वहां – वहां अपनी सांस्कृतिक विरासत और श्रद्धा-भक्ति के अन्यतम पर्व “छठ पूजा” को लेकर गये.
फिजी, सूरिनाम, मॉरिशस से लेकर इंगलैंड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका तक छठ के दृश्य दिखने लगे. यह पर्व पीढ़ी दर पीढ़ी ट्रांसफर हो चली है. इसने बिहार की सांस्कृतिक विरासत को न सिर्फ थामे रखा है, बल्कि बढ़ा भी रहा है.
अभी छठ को लेकर एक माइक्रो फिल्म “पहली पहल बेर छठी मइया” सोशल मीडिया पर वायरल हुआ है. दो मिनट के इस फिल्म में छठ पूजा एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति के भीतर सेंधमारी करती नजर आती है. प्रेम, परिवार, संस्कृति के छीजते दौर में उसे मजबूती देती दिखती है.
छठ के प्रति लगाव, उसके सामुदायिक और पारिवारिक सौहार्द की कथा बुन देती है. इस परंपरा और संस्कृति को जीवित एवं जीवंत रहने का आख्यान नयी पीढ़ी के माध्यम से ग्लोबल दुनिया में प्रक्षेपित करती है. छोटे-छोटे दृश्यों में सिमटे इस फिल्म पर गौर फरमाएं. डायनिंग टेबल पर बैठे कपल का मोबाइल बजता है. ब्रेड पर चाकू से बटर लगाता युवक फोन उठाता है.
भोजपुरी में मां का स्वर उभरता है, जिसका आशय है- टिकट कैंसिल करा लो, इस बार छठ पूजा नहीं होगी. तुम्हारे पापा भी मना कर रहे हैं. आर्थराइटिस का दर्द बढ़ गया है. अब तो रिश्तेदारी में भी लोग नहीं करते हैं. बहू भी दूसरी संस्कृति की है. इंगलिश मीडियम में पढ़ी-लिखी लड़की कहां यह सब समझेगी. युवती पूछती है, मां क्या कह रही थी? वह बताता है -अब घर में छठ नहीं होगा. यह ट्रेडिशन अब घर से खत्म हो रहा है. वह छठ को लेकर अपने बचपन की स्मृतियों को बताते हुए खोने लगता है.
युवती को पता है कि मां उसके बारे में बात कर रही थी. वह फिर पूछती है – मां मेरे बारे में क्या कह रही थीं? पति चालाकी से बात को काटते हुए कहता है कि वह तुम पर इस परंपरा को थोपना नहीं चाहती. फिर दोनों नौकरी के लिए अपने-अपने ऑफिस निकल जाते हैं. दृश्य बदलता है. पति बेड पर सोया है. पत्नी की आंखों में नींद नहीं है. बगल में पड़े एप्पल का लैपटॉप उठाती है और छठ से संबंधित जानकारियों का प्रिंट लेती है. अगले दृश्य में मंगलसूत्र झुलता दिखता है. युवती नाक के नुकीलेपन से लेकर पूरे मांग में सिंदुर डाले, मांग टीका डाले, लाल जोड़े में छठ का दीपक जला रही है.
छठ के इस रिहर्सल दृश्य को पति सुबह-सुबह देखता है, तो पत्नी मुस्कुराकर कहती है- इस बार मैं छठ करुंगी. परंपरा खत्म नहीं होगी. उसके बाद शारदा सिन्हा के गीत पर्दे पर उभरते हैं. पति छठ से संबंधित एप्प डाउनलोड करता है और कुछ सीडी की कॉपी पत्नी को देता है. छठ किसी विदेशी जमीन पर मां और पिताजी की उपस्थिति में समंदर किनारे मनती है. और इस तरह छठ की परंपरा आगे बढ़ती है. ग्लोबल दुनिया में एप्पल के लैपटॉप, एचपी के प्रिंटर, गूगल, मोबाइल के एप्प और शारदा सिन्हा के सुरमयी गीत- संगीत छठ पर्व को बचाने, बनाने और इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कारक भाव हैं. छठ की धार्मिक आस्थाओं, भक्तिभाव को विज्ञान और सूचना तकनीक इसी तरह ग्लोबल बना रहे हैं.
इस ग्लोबल दुनिया में छठ अर्थात सूर्योपासना की धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं एवं स्थापनाएं भी पूर्ववत हैं. सूर्योपासना का यह पर्व अपने भीतर कई किंवदंतियों को समेटे है. प्रकाश पर्व दीपावली के छठवें दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को मनाये जाने वाले इस पावन पर्व की कथा एक ओर वैदिक संस्कृति से जुड़ती है और दूसरी तरफ रामायण-महाभारत की कथाओं से भी. यह माना जाता है कि कुंती ने सूर्य की आराधना से ही तेजस्वी पुत्र कर्ण को जन्म दिया. उसने ही पहली बार अपने पुत्रों की प्राणरक्षा के लिए सूर्योपासना की.
यह भी मान्यता है कि राज्याभिषेक के बाद राम और सीता ने पुत्र प्राप्ति के लिए सूर्य की आराधना की. शिवपुत्र कार्तिकेय के जन्म की कथा भी सूर्य की आराधना से जुड़ी है. इन तमाम किंवदंतियों में एक बात जो मूल रूप से जुड़ी है कि चाहे कर्ण हों, लव-कुश हों या कार्तिकेय के जन्म की परिकल्पनाएं, है यह पुत्र प्राप्ति से जुड़ी दंतकथाएं ही. यह श्रेष्ठ पुत्रों के जन्म से जुड़ी कथाएं हैं और आज भी इस रूप में इसकी मान्यताएं हैं.
इन धार्मिक कथाओं से बाहर निकलें तो यह मान लेने में हर्ज नहीं है कि सूर्योपासना दरअसल प्रकृति की अनंत, अक्षय विराटता की उपासना है. यह प्रकृति की जीवनदायी अक्षय स्रोतों के प्रति लघुमानव का नमन और ग्रहण है. प्रकृति और मनुष्य के एकाकार होने का भाव है. पूरे ब्रह्मांड या सौरमंडल के अधिष्ठाता सूर्य ही हैं जो पृथ्वी पर जीवन, जीवनाहार और ऊर्जा के स्रोत हैं. आखिर मनुष्य के जीवन का पालन पोषण व रक्षण करने वाले ऊर्जा स्रोतों के प्रति एकाकार हो जाने की अनुभूति या उसके दाय को झुक कर, हाथ जोड़ कर या फैला कर स्वीकार करने की एक प्रविधि ही छठ पूजा है.
भारतीय परंपरा, जीवनशैली एवं संस्कृति में तमाम पर्व – त्योहार कृषि सभ्यता से गहरे जुड़े हैं या कहें वही इसके जन्म के कारक हैं. जब भी कृषक संस्कृति या प्रकृति नये फल, फूल, अनाज हमें देती है, तभी एक नये पर्व या त्योहार को हम मनाते हैं. छठ का मौसम कई नये फसलों के आगमन एवं उसके उपभोग के सूचक हैं. पूजन के दौरान जिन फलों का इस्तेमाल होता है, वे सभी मौसमी होते हैं.
धार्मिक भावों से बाहर निकल कर देखें तो हिंदू पर्व – त्योहारों में सूर्योपासना की यह पहल सबसे प्राचीन परंपरा ठहरती है. तब जब भक्त और भगवान के बीच पंडे, पुजारी और धर्मगुरुओं का जन्म नहीं हुआ था. हिंदू धार्मिक रीति-रिवाजों में यह एकमात्र ऐसा हिंदू पर्व है, जिसकी पूजा-अर्चना एवं अाराधना में किसी मध्यस्थ की जरुरत नहीं पड़ती है. भक्त अपने तरीके से भगवान सूर्य की उपासना करता है.
उसे जो कुछ भेंट करता है, वह प्रकृति से ग्रहण कर प्रकृति को समर्पण है. अनुष्ठान के लिए कोई पुजारी धर्मगुरु नहीं होता, जिसके दक्षिणा और धन के बिना अनुष्ठान संभव नहीं. यह जनतांत्रिक पर्व है, जिसे सभी तबके के लोग एक ही श्रद्धाभाव से मनाते हैं. निचली जाति से लेकर तथाकथित ऊंची जाति के लोग एक ही तरह से मनाते हैं. इसे मनाने में कोई रोक टोक नहीं है. इसके लिए किसी मंदिर की जरुरत नहीं है, बल्कि नदी, तालाब, पोखर, आहर के किनारे या उसके जल के भीतर खड़े होकर उपासना की जा सकती है.
शहरी संस्कृति में लोग अपने अपार्टमेंट्स, पार्कों, या छत पर पानी का टब रख कर भी पूजा अर्चना कर रहे हैं और कोई धर्मगुरु या धर्म के ठेकेदार की हिम्मत नहीं है कि वे यह कहें कि धर्म भ्रष्ट हो रहा है. छठ पूजा ने अपनी ऐसी प्रकृति बनायी है, ऐसी संरचना में खुद को ढाला है कि धर्मगुरुओं, आचार्यों और पंडे-पुजारियों की दखलअंदाजी बंद है.
अब पटना, दिल्ली – मुंबई जैसे शहरों में छठ समितियां और संगठन उभर आये हैं, जिन्होंने इसके भीतर लोकल नेता पैदा किये हैं. वे अलग-अलग पार्टियों और राजनीतिक संगठनों से जुड़े हैं और धीरे-धीरे शक्ति प्रदर्शन के केंद्र से बनने लगे हैं. छठ को राजनीतिक रंग में वोट की संस्कृति में बदलने की कवायद चालू है. मुंबई में राज ठाकरे की पार्टी मनसे छठ के नाम पर होनेवाले शक्ति-प्रदर्शन से खौफ में रहती है तो इसका कारण यही है कि वह अपने वर्चस्व को बनाये रखना चाहती है.