हमारे युवाओं को लगता है कि माता-पिता हमारी समस्याओं, संवेदनाओं व सपनों को नहीं समझ पा रहे हैं. यों ही, माता-पिता भी सोचते हैं कि आज का युवा आवारा, गैर-जिम्मेवार और आलसी हो गया है. यही सोच दो पीढ़ियों में टकराव और विवाद पैदा करती है.
ऐसे में समझदारी की अपेक्षा दोनों तरफ से है. जीवन यात्रा के आखिरी पड़ाव पर पहुंच कर भी परिवार के बुजुर्गों में परिपक्वता नहीं आयेगी, तो उन्हें उपेक्षित ही होना पड़ेगा. इसी तरह युवाओं को भी जानना होगा कि माता-पिता हमसे ज्यादा समझदार हैं. उन्होंने जीवन को हमसे ज्यादा देखा-समझा है. लिहाजा, हमें उनकी जो सलाह मिल रही है, हमारे हित के लिए है. इस तरह की सोच से आपसी टकराहट में कमी आयेगी. युवाओं के आदर्श श्रीरामचंद्र जी होने चाहिए. उन्होंने जिस पल आदेश पाया कि राज्याधिकार को छोड़ कर तपस्या करने वन जाना है, उसी वक्त बगैर कोई तर्क किये तैयार हो गये. उनके मन में तनिक भी संशय नहीं था. परिवार के बुजुर्ग की बातों पर यकीन, उनके अनुभवों के प्रति श्रद्धा, उनकी सेवा और इच्छाओं व उमंगों को पूरा करने की ललक जब युवाओं में दिखेगी, तो माता-पिता को भी पूरा संतोष होगा. माता-पिता के ऋण नहीं भूलना चाहिए. बचपन में उन्होंने युवा की नासमझी, उधम और अपेक्षाओं को बड़े प्यार से झेला है. अब वे बुजुर्ग हो गये. उनके भले-बुरे स्वभाव को आपको सहन करना होगा. दूसरी तरफ, माता-पिता की भी कुछ जिम्मेवारी है. आज के सुशिक्षित युवाओं को आप अपने दकियानूस विचारों में पिरोने की कोशिश करोगे, तो बच्चे आपका सम्मान क्यों करेंगे? यह हरगिज संभव नहीं होगा. बच्चों को उनकी सोई पड़ी शक्तियों के विकास और उसके सहारे उड़ान भरने का स्वतंत्र अवकाश देना चाहिए.
उस पर आपको यकीन करना चाहिए. जब माता-पिता को लगे कि बाजी हाथ से निकल रही है, तभी उन्हें रोकें-टोकें. और अपने अनुभवों को कारगर बनायें. व्यावहारिक तरीके से उसे समझाने की कोशिश करें. तभी युवाओं को अपने कामों पर कुछ संतोष मिलेगा. वात्सल्य, प्रोत्साहन, विश्वास, स्नेहपूर्ण अनुशासन ही युवा पीढ़ी के साथ होनेवाले टकरावों को मिटा सकती है.
– प्रमुख स्वामी महाराज