काया को निरोग या रोगी रखना बहुत कुछ जिह्वा की गतिविधियों पर निर्भर है. जन्मजात रूप से हर किसी की जीभ को प्रकृति-अनुशासन का स्मरण रहता है. उसे चटोरी तो बाद में जबरन बनाया जाता है. बुरी आदतें तो प्रयत्न करने पर किसी में भी डाली जा सकती हैं.
कई नींद की गोली खाये बिना सो नहीं सकते. इसी प्रकार कुटेव की जकड़न में फंस जाने पर जीभ भी चटोरी हो जाती है और ऐसे जायके मांगती है, जो स्वभावत: उसकी आवश्यकता के सर्वथा विरुद्ध, विपरीत है. किस जीवधारी के लिए क्या आहार उपयुक्त या अनुपयुक्त है?
इसकी जांच-पड़ताल के लिए भीतर प्रवेश करने से पूर्व पदार्थ की आवश्यक जांच-पड़ताल के लिए एक सुयोग्य पारखी पर्यवेक्षक दरवाजे पर नियुक्त है. उसे स्वाद के आधार पर यह निर्णय देने की क्षमता प्राप्त है कि क्या गले से नीचे उतरने दिया जाये और किसके प्रवेश पर रोक लगा दी जाये. प्रत्येक प्राणी इसी आधार पर अपने आहार की जांच पड़ताल करता है और मात्र वही ग्रहण करता है, जो उसके उपयुक्त है. गाय भूखी मर सकती है, पर मांस नहीं खायेगी. सिंह प्राण संकट उत्पन्न होने पर भी घास खाकर रहने के लिए रजामंद न होगा. रित खाने के आदी गलत-सही का विवेक खो बैठते हैं. जीभ के संबंध में भी यही बात लागू होती है.
यदि उसकी परख-क्षमता को तथाकथित स्वादिष्ट पदार्थ खिला-खिला कर कुंठित या विकृत कर दिया गया है, तो फिर स्वाभाविक है कि यथार्थवादी निर्णय दे सकने की स्थिति उसकी न रहे. तब वह भी कड़वी शराब या अफीम की तरह नशेबाजी जैसी रट लगाने लगे. एक और भी बात है कि वस्तु का स्वरूप बदल देने पर उसकी असलियत का पता लगाना कठिन हो जाता है. उबालने, तलने, भुनने, मिर्च-मसाले, शक्कर सुगंध आदि मिला देने पर भी यह पता नहीं चलता कि क्या भक्ष्य है, क्या अभक्ष्य. जब तक वस्तु अपने असली रूप में है, तभी तक उसकी परख हो सकती है.
मनुष्य स्वाद के लिए अभक्ष्य को भक्ष्य और भक्ष्य को अभक्ष्य बनाने के लिए ऐसी उलट-पुलट करता है, जिसको योगाभ्यासियों के शीषर्सन और नटों की तरह हाथ के बल चलने जैसा कौतुक ही समझा जा सकता है.
-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य