जीवन का उच्चतम ध्येय है अनंत का अनुभव करना. बिना अनंत के अनुभव के मनुष्य जीवन पशु के जीवन के समान है. आत्मा की अनंतता की एक झलक मात्र पा जाने से जीवन में बदलाव आ जाता है.
सभी साधक इसके जरिये ही साधक बनते है. ध्यान में साधक अनंत की एक झलक का अनुभव कर लेते हैं. चित्रकार ने भगवान विष्णु को क्षीर सागर (दूध के सागर) पर नाग के बिछौने पर विश्राम करते हुए दिखाया है. इसकी तीन परते हैं. दूध के सागर का अर्थ है कि वातावरण अनुकूल है. वातावरण के अनुकूल होने पर ही समाधि संभव है. शास्त्रों का अध्य्यन मनन करने के लिए भी यह आवश्यक है कि वातावरण में कोई व्यवधान ना हो. अगर आस-पास भूकंप या बाढ़ आयी हो, तो कोई बैठ कर शास्त्र का पाठ, या ज्ञान की चर्चा नहीं करेगा. इसीलिए क्षीर सागर अनुकूल वातावरण का प्रतीक है. जब तक ज्ञान का गहराई से अनुभव ना हो, वह ज्ञान सतही रहता है.
जब कुंडलिनी शक्ति ऊपर उठती है, तब हमारे भीतर जो चैतन्य शक्ति है, जो अनंत है, उसी का राज हो जाता है. उस अनंत शक्ति की नाभि से बिना किसी प्रयास के ही कमल का प्रागट्य हो जाता है. इसी तरह सृजन शक्ति का जन्म हुआ. चैतन्य के आनंदित स्वरूप से सृजन शक्ति का उदय होता है. बड़े से बड़े वैज्ञानिकों ने विश्राम करते हुए ही नये अविष्कार किये हैं.
शोधकर्ताओं के लिए यह परम आवश्यक है कि उनका वातावरण अनुकूल हो- कोई शोर या व्यवधान ना हो. आप किसी से दो दिन में कोई नया अविष्कार करने को नहीं कह सकते हैं. अविष्कार, समय के बंधन से परे है, और प्रतिकूल वातावरण में नहीं हो सकता है. नाभि को दूसरा मस्तिष्क भी कहा जाता है. इस तरह, हमारे शरीर में दो मस्तिष्क हैं.
एक तो सिर है, और दूसरा है नाभि. इसे मणिपुर चक्र कहते हैं. दिमाग जो कार्य करता है, मणिपुर चक्र उसकी सहायता करता है. आधा कार्य तो मणिपुर चक्र ही करता है. इसीलिए, जब पेट अस्वस्थ होता है, तो अक्सर दिमाग में उथल-पुथल होती है, मन में बहुत सारे विचार होते हैं. इसलिए कहा गया है कि योग साधना से मणिपुर चक्र खिल उठता है, एक कमल के फूल की तरह.
– श्री श्री रविशंकर