भगवान चैतन्य ने कहा है कि जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत के विज्ञान में दक्ष हो, जो व्यक्ति कृष्णतत्त्ववेत्ता हो, चाहे वह जिस किसी भी जाति का हो, वही व्यक्ति वास्तविक गुरु है. अत: कृष्णतत्त्ववेत्ता हुए बिना कोई भी प्रामाणिक गुरु नहीं हो सकता.
वैदिक साहित्य में भी कहा गया है- ‘विद्वान ब्राह्मण, भले ही वह संपूर्ण वैदिक ज्ञान में पारंगत क्यों न हो, यदि वह वैष्णव नहीं है या कृष्णभावनामृत में दक्ष नहीं है, तो वह ब्राह्मण होते हुए भी गुरु बनने का पात्र नहीं है. किंतु एक शूद्र व्यक्ति भी, यदि वैष्णव या कृष्णभक्त है, तो वह गुरु बन सकता है.’
संसार की समस्याओं-जन्म, जरा, व्याधि तथा मृत्यु- की निवृत्ति धन-संचय तथा आर्थिक विकास से संभव नहीं है. विश्व के विभिन्न भागों में ऐसे राज्य हैं, जो जीवन की सारी सुविधाओं से तथा संपत्ति एवं आर्थिक विकास से पूरित हैं, फिर भी उनके सांसारिक जीवन की समस्याएं ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं. वे विभिन्न साधनों से शांति खोजते हैं, किंतु वास्तविक सुख उन्हें तभी मिल पाता है, जब वे कृष्णभावनामृत से युक्त कृष्ण के प्रामाणिक प्रतिनिधि के माध्यम से कृष्ण अथवा कृष्णतत्त्वपूरक भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत के परामर्श को ग्रहण करते हैं.
यदि आर्थिक विकास तथा भौतिक सुख किसी के पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से उत्पन्न हुए शोकों को दूर कर पाते, तो अर्जुन यह न कहता कि पृथ्वी का अप्रतिम राज्य या स्वर्गलोक में देवताओं की सर्वोच्चता भी उसके शोकों को दूर नहीं कर सकती. इसीलिए उसने कृष्णभावनामृत का ही आश्रय ग्रहण किया और यही शांति तथा समरसता का उचित मार्ग है. आर्थिक विकास या विश्व आधिपत्य प्राकृतिक प्रलय द्वारा किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है.
भगवद्गीता इसकी पुष्टि करती है- क्षीणो पुण्ये मत्र्यलोक विश्वशंति- जब पुण्यकर्मों के फल समाप्त हो जाते हैं, तो मनुष्य सुख के शिखर से निम्नतम स्तर पर गिर जाता है. ऐसा अध:पतन शोक का कारण बनता है. अत: यदि हम सदा के लिए शोक का निवारण चाहते हैं, तो हमें कृष्ण की शरण ग्रहण करनी होगी.
– स्वामी प्रभुपाद