-हरिवंश-
सांस्कृतिक रपट – दो
19 नवंबर
राजघाट (वाराणसी)
आकाश धरती पर सूर्य के आने के संकेत हैं. पेड़ों के झुरमुटों से चिड़ियों के चहकने की आवाज आ रही है. चुपचाप सूर्योदय देखने में अलौकिक आनंद है. क्यों इस भीड़, तनाव, भागदौड़ आधुनिक और भौतिक परिवेश में हम प्रकृति के इस अव्यक्त सौंदर्य को जी नहीं पा रहे हैं? कृष्णूर्ति की बात याद आती है. हर आदमी अंदर से समृद्ध हो रहा है. पर शायद ही किसी का अंतर्मन प्रस्फुटित होता हो. अंदर से फूल की तरह खिलना नहीं होता. क्योंकि बाहरी दबाव-कारण हैं. समाज, घर, परिवार, धर्म, देश, व्यवस्था, ज्ञान सब मिल कर आपको गढ़ते हैं. आज की सीमा रेखा तय करते हैं.
आप विभिन्न दवाबों के बीच तादात्म्य बैठा कर जीने-गुजरने की राह तलाश लेते हैं. अंदर से आप न खिलते हैं, न आपका सहज विकास होता है. अंकुरे, पर अनखिले रह जाने के बीच ही फैला जनमने और मरने का दुनियावी व्यापार.
आज कृष्णमूर्ति को जानने-समझने आये लोगों के बीच विश्व थियोसॉफिकल सोसाइटी की अध्यक्ष श्रीमती राधा बर्नियर संबोधित करती हैं. वह कहती हैं कि हमारे चारों तरफ अनवरत जीवन संघर्ष है. अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, धार्मिक और व्यक्तिगत संघर्ष से हम जूझ रहे हैं. नैतिकता और अनेक स्वरूप दिखाई देते हैं. मानवता और मनुष्यता की हम ऊंची और लंबी बातें करते हैं. आत्मउत्थान, आत्मप्रदर्शन, आत्ममुग्धता, आत्मसंतोष एक तरह के जीवाणु हैं, जो व्यक्ति को रोगी बनाते हैं. सुंदर मकान, उत्कृष्ट कार, बैंक बैलेंस, महत्वाकांक्षा, समृद्धि, ऐश्वर्य की इच्छाशक्ति में तनाव और द्वंद्व उपस्थित करते हैं. हम देखते हैं कि हमारे बाहर-आसपास क्या हो रहा है? कैसे हो रहा है? क्यों हो रहा है? पर इन चीजों के संबंध में नहीं सोचते.
अपनी मधुर पर ऊर्जाशील आवाज में वह कहती हैं कि हम संघर्ष से मुक्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. क्या स्वार्थ से स्व को मुक्त करा कर देखा जा सकता है? तटस्थ होकर, स्व ऐषणाओं को आरोपित किये बगैर स्वयं को देखना क्या संभव है? क्या हम सहज-तटस्थ होकर देख सकते हैं कि इस कैदखाने का निर्माता कौन है? और इसे कैसे खत्म किया जा सकता है?
इस सवाल पर विचार-मंथन के लिए विभिन्न समूहों में लोग बंटते हैं. विचार संचालन के लिए समूहों को संयोजित करते हैं. अनुभवी और मौलिक चिंतक प्रो पी कृष्णा, बौद्धिक दार्शनिक रिमपोचे, श्रीमती पुपुल जयकर, राजेश दलाल, डॉ सतीश ईनामदार और कृष्णनाथ जी.
इनमें से एक-एक व्यक्ति पर लिखा जा सकता है. इनकी विशेषता बखानने के लिए नहीं, बल्कि महज यह जानने के लिए कि आज इस अंधदौ़ड के बीच भी कितने जीवंत, मौलिक, ऊर्जा-स्फूर्ति से भरे लोग हमारे बीच हैं.कृष्णनाथ जी जब-जब मिलते हैं, एक उत्फुल्लता-ऊर्जा और ताकत मिलती है.
अर्थशास्त्र के गहरे ज्ञाता. पीएल 480 के तहत जब भारत अमेरिकी सहायता ले रहा था. साठ के दशक में तब कृष्णनाथ जी ने बहुचर्चित पुस्तक लिखी थी, ‘द कल्चरल इंपैक्ट ऑफ फारेन एड.’ भारत के इस सांस्कृतिक अद्यपतन के बारे में 20-25 वर्षों पूर्व उन्होंने लिखा. पग-पग पर आज उनकी मान्यताएं देखी जा सकती हैं. जेपी-लोहिया के निकट सहयोगी. यात्रावृत्तांत पर लिखी पुस्तकों से हिंदी को समृद्ध करनेवाले सांस्कृतिक-सामाजिक-दार्शनिक- आर्थिक-राजनीतिक सवालों पर बिलकुल मौलिक ढंग से जीवंत भाषा में सोचने-लिखनेवाले. इतिहास से दरस-परस करने को आकुल. सत्ता की सीढ़ी में कहीं भी जा सकते थे. पर बरसों जेल रहे. पलामू के आदिवासियों में काम किया. भाषा के सवाल पर संघर्ष किया, पर सत्ता से दूर-दूर रह कर स्वैच्छिक ढंग से.
अब ऐसा चरित्र, प्रखरता, निजता और दृष्टि क्यों समाज से लुप्त हो रही है?शाम में विश्व प्रसिद्ध श्रीमती एन राजम का वायलिन वादन होता है. शास्त्रीय संगीत में सचमुच करुणा है. कोमल से कोमल भाव को झंकृत करने की ताकत. वायलिन वादन के क्षेत्र में प्रो कृष्णा उठ कर श्रीमती राजम से अनुरोध करते हैं. फिर वह गांधी जी का प्रिय भजन ‘वैष्ण जन तो तेणे कहिए’ सुनाती हैं वायलिन पर. कैसे पिछले 45 वर्षों में ‘पराई पीर’ जानने की उत्कंठा खत्म हो गयी?
20 नवंबर : बौद्ध दार्शनिक और उद्भट विद्वान प्रोफेसर रिमपोचे प्रभावकारी ढंग से सवाल उठाते हैं. मनुष्य के विचार और आचार में भिन्नता क्यों है? कथनी और करनी के बीच खाई के जिम्मेदार हम हैं. या समाज? उनमें विलक्षणता है, और अपनी बातों से सम्मोहित करने की ताकत. बाद में विचार के लिए बैठे सारे समूहों को ये सवाल मथते हैं.
दिन में ‘शिक्षा’ पर अनूठा सेमिनार होता है. इस पारंपरिक शिक्षा का चरम क्या है? क्या इस रूप में यह शिक्षा स्वीकार्य है? प्रोफेसर पी कृष्णा एक सवाल के जवाब में एक सवाल रखते हैं. हाल के वर्षों में दुनिया का सबसे शिक्षित देश कौन हुआ? कहां सबसे अधिक वैज्ञानिक-विद्वान-अन्वेषक पैदा हुए? जर्मनी में, उसी जर्मनी में जहां नाजी अत्याचार हुए. एशिया, अफ्रीका या लैटिन अमेरिका के कथित पिछड़े, क्रूर अपढ़ देशों में नहीं. तो क्या मौजूदा शिक्षा और क्रूरता के बीच कोई रिश्ता है? शहरों के अमानवीय होने के पीछे क्या यही कारण है? यह सवाल इतना मौलिक और विचारोत्तेजक है कि इसे सहजता से टाला नहीं जा सकता.
21 नवंबर : सुबह की बातचीत के दौरान शिक्षा पर मौलिक ढंग से सोचनेवाले राजेश दलाल मृत्यु की चर्चा करते हैं? क्या सगों की मृत्यु अंदर से तोड़ती है या एक सीमा बाद सार्वजनिक पीड़ा का हिस्सा बन कर ऊर्जा देती है? जब बातचीत आगे बढ़ती है, तो कृष्णनाथ जी एक समूह के सामने सवाल रखते हैं. क्या जब आप पूर्ण स्वस्थ हैं, भौतिक सुख (अगर कुछ है) के शिखर पर हैं, तो क्या मृत्यु आनंददायक (अगर है?) है, तो क्या मृत्यु की कल्पना की जा सकती है? क्या अनुभूति होगी?
इन सारे सवालों पर दार्शनिक कृष्णमूर्ति ने गहराई से सोचा है. उनके विचारों में सहजता है. प्रवाह है और वह एक दृष्टि देते हैं.चार दिनों के इस अनुभव के आगे गुजरे लगभग 38 वर्षों का अनुभव कमजोर लगता है. पर क्या यह अनुभव स्थायी हो सकता है? या जीवन के गोरख-धंधे में इसकी कोई अहमियत नहीं?