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जीवात्मा और विज्ञान

जीवात्मा क्या और इसका लक्षण, स्वरूप, स्वभाव तथा लक्ष्य क्या है? इस सवाल पर विज्ञान शुरू में विरोधी था, वह कहता था जड़ तत्त्वों के, अमुक रसायनों के एक विशेष संयोग-सम्मिश्रण का नाम ही जीव है. उसकी सत्ता वनस्पति वर्ग की है. मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़ है. रासायनिक संयोग उसे जन्म देते, बढ़ाते और बिगाड़ […]

जीवात्मा क्या और इसका लक्षण, स्वरूप, स्वभाव तथा लक्ष्य क्या है? इस सवाल पर विज्ञान शुरू में विरोधी था, वह कहता था जड़ तत्त्वों के, अमुक रसायनों के एक विशेष संयोग-सम्मिश्रण का नाम ही जीव है. उसकी सत्ता वनस्पति वर्ग की है. मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़ है. रासायनिक संयोग उसे जन्म देते, बढ़ाते और बिगाड़ देते हैं.

ग्रामोफोन के रिकार्डों पर सुई का संयोग होने से आवाज निकलती है और वह संयोग-वियोग में बदलते ही ध्वनि प्रवाह बंद हो जाता है. जीव अमुक रसायनों के अमुक मात्रा में मिलने से उत्पन्न होता है और वियोग होते ही उसकी सत्ता समाप्त हो जाती है. अणु अमर हो सकते हैं, पर शरीर ही नहीं, उसकी विशेष स्थिति चेतना भी मरण धर्मा है.

यही था वह प्रतिपादन जो चार्वाक मुनि के शब्दों को विज्ञान दोहराता रहा. उसकी दलील यही थी- शरीर नष्ट होने पर आत्मा भी नष्ट हो जाती है. इस मान्यता का निष्कर्ष यही निकला कि जब शरीर के साथ ही अस्तित्व नष्ट होते हैं, तो परलोक का भय क्या करना? जितना सुख जिस प्रकार भी संभव हो लूट लेना चाहिए, इसी में जीवन की सार्थकता है. नास्तिकवाद ने जन-साधारण को यही सिखाया कि जब तक जियो, कर्ज लेकर घी पियो.

चूंकि घी अब तथाकथित सभ्यता का चिह्न भी नहीं है, इसलिए आधुनिक चार्वाकों ने ‘कुकर्म करके धन कमाओ- नशा पियो और मजा उड़ाओ’ के सूत्र रच दिये. इन दिनों जन-मानस इसी प्रेरणा का अनुगमन कर रहा है. विज्ञान जब कुछ उन्नत हुआ, तो उसने जीव को एक स्वतंत्र चेतना के रूप में मानना स्वीकार किया. मन:शक्ति को मान्यता दी गयी. आरंभिक दिनों में जीवाणु ही शरीर और मन का आधार था.

पीछे माना गया कि मन:चेतना की अपनी सत्ता है. मरणोत्तर स्थिति में भी उसकी सत्ता बनी रहती है. विज्ञान जब अपनी पूर्ण परिपक्वावस्था में पहुंचेगा, तो उसे जीवन के लक्ष्य एवं विकास का वह स्वरूप भी मान्य हो सकेगा, जो आत्मा को परमात्मा स्तर का बनाने के लिए, योग और तप का अवलंबन लेने के लिए तत्वदर्शियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि के आधार पर कहा बताया था. विज्ञान की पदयात्रा क्रमश: नास्तिकता से आस्तिकता की ओर बढ़ रही है.

-पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

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