सेवा किसलिए करनी चाहिए? स्वामी शिवानंद जी का मानना था कि मनुष्य जीवन भर कर्म करता है, जिसका प्रयोजन स्वार्थपूर्ति होता है. लेकिन, जब उसी कर्म को हम स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं, बल्कि परोपकार की भावना से जुड़ कर करें, तब वही कर्म सेवा का रूप ले लेता है.
जब हम अपने लिए भोजन करते हैं, तब स्वार्थ कर्म हुआ. जब हम दूसरे को भोजन दे रहे हैं, तो परमार्थ कर्म हुआ. जब हम अपना उपचार करते हैं, तब स्वार्थ कर्म हुआ. जब हम दूसरों का उपचार करते हैं, तब सेवा कर्म हुआ. प्रारंभ में मनुष्य का कर्म स्वार्थ से थोड़ा अलग होकर परमार्थ से जुड़ जाये, तो उतना ही पर्याप्त है. उससे ज्यादा नहीं चाहिए. सौ प्रतिशत स्वार्थ से जुड़े हुए कर्म में बीस प्रतिशत परमार्थ जोड़ दो, तो वह कर्म सेवा बन जायेगा. वह कर्म तुम्हारी आत्मसंतुष्टि या स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं, परोपकार के लिए होगा और सेवा का रूप ले लेगा. जब सेवा का रूप लेगा, तब तुम्हारे कर्म से दूसरों के जीवन में प्रसन्नता आयेगी, खुशी आयेगी. तुम्हारे कर्म से वे अपने आपको धन्य मानेंगे और उनका आशीर्वाद तुम्हें प्राप्त होगा. जीवन के स्वाभाविक कर्मों में संतुलन लाने के लिए स्वामी जी ने कहा कि कर्म करो, लेकिन उस कर्म को सेवा का रूप दे दो.
– स्वामी निरंजनानंद सरस्वती