साधना के मार्ग में बहुत उतार-चढ़ाव आते हैं. उन्हें तटस्थ भाव से पार करने के लिए हर गतिविधि के समुचित मूल्यांकन की अपेक्षा है. अन्यथा अकस्मात उत्पन्न होनेवाली स्थिति में साधक का चित्त डांवाडोल हो सकता है. अस्थिरता की स्थिति में वह साधक अपनी समस्या का समाधान पा लेता है, जिसे गुरु का सानिध्य प्राप्त होता है. अपने आप साधना करनेवाला उलझ जाता है.
यह उलझन अकारण नहीं होती. ध्यान के अभ्यास द्वारा जब सुप्त शक्तियों का जागरण होता है, तो कामकेंद्र भी जागृत हो जाता है. उससे कई प्रकार की कठिनाइयां बढ़ जाती हैं. इसीलिए प्राचीन आचार्य ने गुरु की सानिध्य में साधना करने का विधान किया है. समाधि के इच्छुक, तपस्वी श्रमण को आहार, सहायक और स्थान का चुनाव बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए. उसके आहार का आदर्श मितभोजिता हो.
साधक के रहने और साधना करने का स्थान भी एकांत में होना चाहिए. एक अनुभवी साधक भी अपनी साधना को आगे बढ़ाने में उत्तरसाधक की अपेक्षा अनुभव करता है, वहां साधना के क्षेत्र में प्रवेश करनेवाले साधक के लिए मार्गदर्शक के सतत मार्गदर्शन को नकारा ही नहीं जा सकता.
– आचार्य तुलसी