हमारे भीतर डर का जन्म विचार से होता है. मैं अपनी नौकरी व काम-धंधा छूट जाने के बारे में या इसकी आशंका के बारे में सोचता हूं और यह सोचना, यह विचार डर को जन्म देता है. इस प्रकार विचार खुद को समय में फैला देता है, क्योंकि विचार समय ही है. मैं कभी किसी समय जिस रोग से ग्रस्त रहा, मैं उस विषय में सोचता हूं, क्योंकि उस समय का दर्द है.
बीमारी का अहसास मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं डर जाता हूं कि मुझे फिर वही बीमारी ना हो जाये. दर्द के विषय में विचारना और उसे नापसंद करना डर पैदा कर देता है. डर का सुख-विलासिता से करीबी रिश्ता है. हममें से अधिकांश सुख-विलास से प्रेरित रहते हैं. यह सुख विचार का ही एक हिस्सा है. जिस चीज से सुख मिला हो, उसके बारे में सोचने से सुख मिलता है. सुख बढ़ जाता है, क्या आपने इस पर ध्यान दिया है?
आपको किसी ऐसा सुख का कोई अनुभव हुआ हो- किसी सुंदर सूर्यास्त का और आप उसके बारे में सोचते हैं. उसके बारे में सोचना, उस सुख को बढ़ा देता है, जैसे आपके द्वारा अनुभूत किसी पीड़ा के बारे में सोचना, डर पैदा कर देता है. अतएव हमारा विचार ही हमारे मन में पैदा होनेवाले सुख का या डर का जनक है.
– जे कृष्णमूर्ति