कुछ लोग कहते हैं, ‘हम अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन कर ही अच्छे और बुरे, सही और गलत को जान लेते हैं. हमें शास्त्रों और धर्मग्रंथों की आवश्यकता नहीं.’ लेकिन कोई भी व्यक्ति केवल अंतरात्मा की आवाज के सहारे उचित-अनुचित का निर्णय नहीं कर पायेगा.
अंत:करण की आवाज कुछ संकेत अवश्य दे सकती है, लेकिन कठिन परिस्थितियों में इसकी सहायता की अपेक्षा नहीं की जा सकती. मनुष्य का अंत:करण शिक्षा एवं अनुभवों के साथ परिवर्तित होता है.
यह व्यक्ति की बौद्धिक अवधारणा मात्र है. व्यक्ति की अंतरात्मा उसकी प्रवृत्तियों, अभिरुचियों, शिक्षा एवं वासनाओं के अनुसार बोलती है. एक असभ्य जंगली के अंत:करण की भाषा किसी सभ्य शहरी की भाषा से भिन्न होती है. एक भौतिकवादी यूरोपियन के अंत:करण की भाषा एक उदात्त भारतीय योगी के अंत:करण की भाषा से बहुत अलग है. एक ही जाति-धर्म के दो व्यक्तियों के अंत:करण की आवाज में इतना अंतर क्यों है? एक ही जिले, एक ही समुदाय के दस लोगों में हम दस प्रकार के मत क्यों पाते हैं?
मनुष्य को उचित-अनुचित, भले-बुरे, तथा जीवन के अन्य कर्त्तव्य समझाने के लिए केवल अंत:करण की वाणी पर्याप्त मार्ग-निर्देशन नहीं कर सकती. शास्त्र एवं सिद्ध महापुरुष ही मनुष्य का अपने कर्त्तव्यों के कुशल निष्पादन में सही पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं.
स्वामी शिवानंद सरस्वती