ध्याता और ध्येय में बहुत दूरी है. उसे पाटना बहुत कठिन होता है. जब साधक इस दूरी को पाटने का प्रयत्न करता है, तब बीच में अनेक अवरोध आ जाते हैं और ध्यान भंग हो जाता है. एकाग्रता मिट जाती है.
मन बाहर की चीजों में उलझ जाता है. ध्येय धुंधला हो जाता है, छूट जाता है. जब ध्येय की दिशा में गमन ही नहीं होता या भटकाव हो जाता है, तब ध्येय उपलब्ध कैसे हो सकता है? दूरी तभी मिट सकती है, जब हमारे मन की गति निरंतर ध्येय की दिशा में होती है. जब मन व्याग्रता से शून्य हो जाता है, तब ध्येय की निकटता होने लगती है.
जब निकटता बढ़ते-बढ़ते हमारे चरण ध्येय तक पहुंच जाते हैं, तब मन की जो स्थिति बनती है, वह है तन्मयता. तन्मय हो जाने का अर्थ है-एक हो जाना. ध्येय और ध्याता तब दो नहीं रह जाते, एक हो जाते हैं. पूर्व मिट जाता है और ध्येय का रूप अवतरित हो जाता है. पूर्व व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है और ध्येय का व्यक्तित्व समाविष्ट हो जाता है. वहां ‘मैं’ समाप्त हो जाता है. जो बनना होता है वह घटित हो जाता है.
ध्याता स्वयं ध्येय रूप बन जाता है. फिर व्यक्ति अलग नहीं होता और सामयिक अलग नहीं होती. व्यक्ति स्वयं सामयिक बन जाता है. फिर वह ऐसा नहीं कह सकता कि ‘मैं सामयिक कर रहा हूं.’ यहां ‘मैं’ और ‘सामयिक’ दो नहीं रहते. करने की तो बात ही छूट जाती है. और सामायिक जीवन में अवतरित हो जाती है.
– आचार्य महाप्रज्ञ