जब से मनुष्य चिंतन करता रहा है, तब से वह मूल तत्व को खोजता रहा है. मूल तत्व की खोज आज भी चल रही है और अनंतकाल तक चलती रहेगी. सत्य अनंत है. अनंत सत्य को सदा खोजा जा सकता है. पचीस सौ वर्ष पहले की घटना है. एक राजा था. उसका नाम था प्रदेशी.
एक महामेधावी मुनि केशीकुमार वहां आये. राजा ने मुनि से कहा- ‘महाराज! आत्मा नहीं है. चेतन तत्व का अस्तित्व नहीं है. जो शरीर है, वही आत्मा है. आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं. जो प्रत्यक्ष है, वही सत्य है. शरीर प्रत्यक्ष है. उससे अतिरिक्त आत्मा नहीं है. अचेतन ही वास्तविक है. वह भी अनंत शक्तिशाली होता है.’
मुनि ने कहा- ‘राजन! तुम्हारी बात में जो सच्चई है, मैं उसे स्वीकार करता हूं. किंतु एक बात मैं पूछना चाहता हूं कि धनुष खंडित है, प्रत्यंचा टूटी हुई है, तो क्या कोई उस धनुष पर बाण चढ़ा सकेगा? बाण चढ़ानेवाला तरुण है, समर्थ है, शक्तिशाली है, फिर भी वह उस धनुष पर बाण नहीं चढ़ा पाता. यदि धनुष अखंडित है, प्रत्यंचा टूटी हुई नहीं है, तो फिर कोई भी युवा उस पर बाण चढ़ा सकता है.
तात्पर्य है कि बालक के उपकरण पर्याप्त नहीं है, वह धुनष पर बाण नहीं चढ़ा सकता. युवा के उपकरण पर्याप्त हैं, इसलिए वह धनुष पर बाण चढ़ा सकता है. प्रश्न उपकरणों की पर्याप्तता या अपर्याप्तता का है, आत्मा का नहीं. बच्चे की आत्मा और युवा की आत्मा में कोई अंतर नहीं है.
आचार्य महाप्रज्ञ