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भावनात्मक तनाव

हमें प्रिय वस्तु कैसे मिले और अप्रिय वस्तु कैसे छूटे-इस चिंता में ही सारा समय बीतता जाता है, सारे प्रयत्न उसी दिशा में प्रवाहित होते हैं. प्रिय का वियोग न हो-यह बात भी सताती है और अप्रिय का संयोग न हो, यह बात भी सताती है. प्रिय का वियोग हो जाने पर उसे पुन: प्राप्त […]

हमें प्रिय वस्तु कैसे मिले और अप्रिय वस्तु कैसे छूटे-इस चिंता में ही सारा समय बीतता जाता है, सारे प्रयत्न उसी दिशा में प्रवाहित होते हैं. प्रिय का वियोग न हो-यह बात भी सताती है और अप्रिय का संयोग न हो, यह बात भी सताती है.

प्रिय का वियोग हो जाने पर उसे पुन: प्राप्त करने की चिंता भी सताती है और अप्रिय का वियोग हो जाने पर उसके संयोग की चिंता भी सताती है.

यह चिंता भावनात्मक तनाव बनाये रखती है. व्यक्ति कभी इससे मुक्त नहीं हो पाता. सच्चाई यह है कि विश्व में किसी भी व्यक्ति को प्रिय का संयोग निरंतर नहीं मिलता और अप्रिय का संयोग भी निरंतर नहीं बना रहता. कभी प्रिय का संयोग होता है और अप्रिय का वियोग और कभी अप्रिय का संयोग होता है और प्रिय का वियोग. यह चक्र चलता रहता है.

संयोग और वियोग का चक्र निरंतर गतिमान है. यह विश्व का नियम है. कोई भी इसका अपवाद नहीं है. विश्व में ऐसा घटित होता है कि जिसे हम चाहते हैं, वह प्राप्त नहीं होता, जिसे हम चाहते हैं, वह चला जाता है और जिसे हम नहीं चाहते, वह प्राप्त हो जाता है. जानेवाला चला जाता है. हम व्यर्थ ही दुखी हो जाते हैं. जो चला गया, वह भी संयोग है और जो पीछे बचा, वह भी एक संयोग है.

जब जानेवाला चला ही गया, तब हमें फिर यह भावना क्यों सताये कि पीछे रहनेवाले व्यक्ति रोते ही रहें. यही भावना का आवेग है. अत: भावनात्मक तनाव कभी समाप्त नहीं होता.

आचार्य महाप्रज्ञ

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