विभिन्न मत एक-एक अवस्था या क्रम मात्र हैं- उनके इस सिद्धांत से वेदों का अर्थ समझ में आ सकता है और शास्त्रों में सामंजस्य स्थापित हो सकता है. दूसरे धर्म या मत के लिए हमें केवल सहनशीलता का प्रयोग नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें स्वीकार कर प्रत्यक्ष जीवन में परिणत करना चाहिए.
प्रत्येक युग में समस्त विभिन्न मतवादों के संघर्ष के फलस्वरूप अंत में एक ही मतवाद जीवित रहता है. अन्य सब तरंगें उसी मतवाद में विलीन होने के लिए एवं उसे एक वृहद् भाव-तरंग में परिणत करने के लिए ही उठती हैं, जो समाज को अप्रतिहत वेग के साथ प्लवित कर देता है.
संसार में एक विश्वव्यापी राजनीतिक साम्राज्य स्थापित करने व एक विश्वव्यापी धार्मिक साम्राज्य स्थापित करने के दो स्वप्न बहुत समय से मनुष्य जाति के सम्मुख रहे हैं; परंतु महानतम विजेताओं की योजनाएं, संसार का एक अल्पांश विजय कर पाने के पूर्व ही, बारंबार उनके अधीनस्थ प्रदेशों के विद्रोह-विच्छेद से भंग हो गयीं और इसी प्रकार प्रत्येक धर्म अपने पालन से भलीभांति बाहर निकलने भी न पाया और विभिन्न मतों-संप्रदायों में विभक्त हो गया. मतांध व्यक्ति अपनी सारी विचार-शक्ति खो बैठता है.
व्यक्तिगत तौर पर वह यह जानने को बिल्कुल भी इच्छुक नहीं रह जाता है कि कोई व्यक्ति कहता क्या है? उसका एकमात्र ध्यान रहता है यह जानने में कि वह बात कहता कौन है? जो अपने मत के लोगों के प्रति दयालू है, वही अपने संप्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति निष्ठुर हो जाता है.
– स्वामी विवेकानंद