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विश्व की कार्यप्रणाली
हमारा विज्ञान कहता है, वस्तु-मात्र छिद्रयुक्त है-अर्थात ‘है’ और ‘नहीं’ की समष्टि में ही उसका अस्तित्व है. आलोक और अंधकार, प्रकाशन और आच्छादन, छंद की रक्षा करते हुए चलते हैं, वे सृष्टि को विच्छिन्न नहीं करते; बल्कि उसे ताल के अनुसार आगे बढ़ाते हैं. जब हम घड़ी की ओर देखते हैं, तब यदि मिनट और […]
हमारा विज्ञान कहता है, वस्तु-मात्र छिद्रयुक्त है-अर्थात ‘है’ और ‘नहीं’ की समष्टि में ही उसका अस्तित्व है. आलोक और अंधकार, प्रकाशन और आच्छादन, छंद की रक्षा करते हुए चलते हैं, वे सृष्टि को विच्छिन्न नहीं करते; बल्कि उसे ताल के अनुसार आगे बढ़ाते हैं.
जब हम घड़ी की ओर देखते हैं, तब यदि मिनट और घंटों की सुइयों पर विशेष ध्यान दें, तो ऐसा लगता है कि वे या तो अविराम चलती जा रही हैं या बिल्कुल ही नहीं चल रही हैं.
लेकिन सेकेंड की सुई पर ध्यान दें, तो हम देखते हैं कि वह टिक-टिक करती हुई रुक-रुक कर आगे बढ़ती है. विश्व की कार्य-प्रणाली में हम केवल मिनट का कांटा देखते हैं. यदि सेकेंड का कांटा देख पाते, तो हम अनुभव करते कि विश्व प्रति निमिष रुकता है और चलता है.
सृष्टि के द्वंद्व-लोलक की एक ओर ‘हां’ है, दूसरी ओर ‘नहीं’, एक ओर ‘ऐक्य’ है दूसरी ओर ‘द्वैत’. इस विरोध का समन्वय करने के लिए हम तर्कशास्त्र में कितने ही असाध्य मतवाद गढ़ते हैं. लेकिन सृष्टि-शास्त्र में ये विरोधी शक्तियां अपने-आप मिल जाती हैं और विश्व-रहस्य को अनिर्वचनीय बना देती हैं. शक्ति यदि अकेली हो, तो वह अपने एकाकी बल से लंबी रेखा बनाती हुई उद्भव वेग से सीधी चलती रहे; दायें-बायें मुड़ कर भी न देखे.
लेकिन शक्ति को जगत में एकाधिपत्य नहीं दिया गया, उसका एक जोड़ा है, जिसके साथ वह बंधी हुई है. और उन दोनों के विरोध से विश्व की प्रत्येक वस्तु नम्र हो जाती है, वतरुलाकार और सुसंपूर्ण हो जाती है.
रबींद्रनाथ टैगोर
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