साधु-संन्यासी लोग या आध्यात्मिक लोग साधना क्यों करते हैं? क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है? मूलत: साधना का प्रयोजन है स्थूल शरीर को भेद कर सूक्ष्म शरीर तक पहुंचना.
हम पहले स्थूल शरीर के प्रकंपनों को देखें, स्थूल शरीर में होनेवाले रासायनिक परिवर्तनों को देखें, स्थूल शरीर में घटित होनेवाले जैविक परिवर्तनों को देखें और ग्रंथियों के स्नवों को देखें-समङों. शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है; एक पर्याय प्रकट हो रहा है, दूसरा पर्याय नष्ट हो रहा है. यह उत्पाद और व्यय का चक्र निरंतर चल रहा है. इस चक्राकार पर्याय के स्नेत को हम देखें. इतना देखना पर्याप्त नहीं है. यह तो केवल स्थूल को देखना ही हुआ.
हमें सूक्ष्म को भी देखना है. हम देखने की अपनी शक्ति को इतना विकसित करें कि किसी उपकरण या यंत्र की सहायता के बिना भी हम तेजस शरीर को साक्षात् देख सकें, आभामंडल को देख सकें, कर्म शरीर को भी देख सकें. उसमें होनेवाले कर्म-विपाकों को भी देख लें. इन सबको देख कर हम उसको भी देख लें जहां देखनेवाला और देखना दो नहीं रहते, द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं. हम चलते-चलते अपने चैतन्य के मूल स्वरूप में चले जायें, उसमें अवस्थित हो जायें, यह बहुत लंबी यात्रा है.
अभी हमने यात्रा का प्रारंभ ही किया है. हमें बहुत दूर पहुंचना है. हम उत्साह शक्ति को बढ़ायें, जिससे यात्रापथ निर्बाध हो सके और हम स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा को आनंदपूर्वक संपन्न कर लक्ष्य तक पहुंच सकें.
आचार्य महाप्रज्ञ