अपने चारों ओर हम जो अशुभ तथा क्लेश देखते हैं, उन सबका केवल एक ही मूल कारण है-अज्ञान! मनुष्य को ज्ञान-लोक दो, उसे पवित्र एवं आध्यात्मिक बल-संपन्न करो और शिक्षित बनाओ, तभी संसार से दुख का अंत हो पायेगा.
बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो स्वयं होते तो बड़े अज्ञानी हैं, परंतु फिर भी अहंकार से अपने को सर्वज्ञ समझते हैं. इस प्रकार अंधा अंधे का अगुआ बन दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ते हैं. यह सोचना कि मेरे ऊपर कोई निर्भर है तथा मैं किसी का भला कर सकता हूं, अत्यंत दुर्बलता का चिह्न् है. यह अहंकार ही समस्त आसक्ति की जड़ है और इसी से ही समस्त दुखों की उत्पत्ति होती है. हमें अपने मन को यह भली-भांति समझा देना चाहिए, कि इस संसार में हम पर कोई भी निर्भर नहीं है.
अहिंसा ठीक है, निश्चय ही बड़ी बात है. कहने में बात तो अच्छी है, पर शास्त्र कहते हैं-तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई एक थप्पड़ मारे और यदि उसका जवाब तुम दस थप्पड़ों से न दो तो तुम पाप करते हो. कोई व्यक्ति भले ही क्षणिक आवेश में आकर अथवा किसी अंधविश्वास से प्रेरित हो या पुरोहितों के छक्के-पंजे में पड़ कर कोई भला काम कर डाले, पर मानव जाति का सच्चा प्रेमी तो वह है जो किसी के प्रति ईष्र्या-भाव नहीं रखता.
संसार में जो बड़े मनुष्य कहे जाते हैं, वे अकसर एक-दूसरे के प्रति केवल थोड़े से नाम या चांदी के कुछ टुकड़ों के लिए ईष्र्या करने लगते हैं. जब तक यह ईष्र्या-भाव मन में रहता है, तब तक अहिंसा-भाव में प्रतिष्ठित होना दूर की बात है.
– स्वामी विवेकानंद