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ध्यान की विधि को पकड़ना

मेरे मन पर ध्यान के जिस स्वरूप का विशेष प्रभाव है, उसमें अनेक प्रश्नों का समाधान निहित है. मुङो ऐसा प्रतीत होता है. उसके अनुसार चेतना का वह क्षण ध्यान है, जिसमें प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त हो जाता है. यही क्षण अप्रमाद का क्षण है, पूर्ण जागरूकता का क्षण है, भाव क्रिया का […]

मेरे मन पर ध्यान के जिस स्वरूप का विशेष प्रभाव है, उसमें अनेक प्रश्नों का समाधान निहित है. मुङो ऐसा प्रतीत होता है. उसके अनुसार चेतना का वह क्षण ध्यान है, जिसमें प्रियता और अप्रियता का भाव समाप्त हो जाता है.

यही क्षण अप्रमाद का क्षण है, पूर्ण जागरूकता का क्षण है, भाव क्रिया का क्षण है, मूच्र्छा की ग्रंथि तोड़ने का क्षण है, साधना का क्षण है. ध्यान के इस स्वरूप बोध के बाद यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आंख मूंद कर बैठना ही ध्यान है, ऐसा आग्रह नहीं होना चाहिए. आंख मूंद कर बैठना ही ध्यान नहीं, इसका अर्थ यह भी नहीं कि आंख मूंद कर बैठने की जरूरत नहीं है.

अभ्यास काल में तो आंख मूंद कर बैठना ही पड़ता है. मूल बात यह है कि ध्यान का प्रयोक्ता घर में रहे या बाहर, नाटक-सिनेमा देखे या धर्मस्थान में प्रवचन सुने, व्यवसाय करे या समाज-सुधार का काम, उसके मन में प्रियता और अप्रियता का भाव नहीं रहना चाहिए. जब तक यह स्थिति उपलब्ध नहीं हो जाती है, तब तक अभ्यास की अपेक्षा रहती है. क्योंकि एकांत जंगल हो या गुफा, आंख बंद हो या खुली हो, अभ्यास के अभाव में प्रियता और अप्रियता की अनुभूति छूट नहीं सकती.

ध्यान करना कोई कठिन बात नहीं, कठिन बात है- अभ्यास की सही विधि को पकड़ना. प्रियता और अप्रियता की समाप्ति का क्षण ही सर्वाधिक मूल्यवान है, यदि वह किसी की पकड़ में आ जाये. जो व्यक्ति प्रियता और अप्रियता में उलझा रहता है, वह उनसे मुक्त होने की स्थिति का अनुभव ही नहीं कर पाता.

आचार्य तुलसी

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