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दुखवाद की उत्पत्ति

मनुष्य बहुत जटिल प्राणी है. सुख की खोज करता है. सुख न मिले, तो दुख से राजी हो जाता है. क्योंकि खोज की भी एक सीमा है. फिर खोजते ही चले जाना व्यर्थ श्रम मालूम होता है. तो दुख से राजी हो जाता है. राजी ही नहीं होता, एक तरह का दुख में रस लेने […]

मनुष्य बहुत जटिल प्राणी है. सुख की खोज करता है. सुख न मिले, तो दुख से राजी हो जाता है. क्योंकि खोज की भी एक सीमा है. फिर खोजते ही चले जाना व्यर्थ श्रम मालूम होता है. तो दुख से राजी हो जाता है. राजी ही नहीं होता, एक तरह का दुख में रस लेने लगता है.

यह बड़ी खतरनाक चित्त की दशा है. अगर दुख में तुम रस लेने लगे, तब तो तुमने सुख के सब द्वार बंद कर दिये. दुखी रहते-रहते, बहुत दिन तक दुखी रहते-रहते दुख के साथ संग बन गया, संबंध बन गये. फिर तो अगर कोई आ भी जाये सुख देने, तो भी तुम द्वार बंद कर लोगे. तुम कहोगे, दुख से अब पुराना नाता बन गया. अब छोड़े नहीं बनता. अब संग-साथ छोड़ना संभव नहीं है. इसी तरह मनुष्य के भीतर दुखवाद पैदा होता है.

जो लोग दुखवादी हैं, वे प्रथम सभी सुखवादी थे. सुख की खोज में गये थे, लेकिन सुख तक पहुंच न पाये. न पहुंचने से यह सिद्ध नहीं होता कि सुख नहीं है. इससे इतना ही सिद्ध होता है कि तुम्हारे पहुंचने में कहीं भूल-चूक रही. तुमने कुछ गलत दिशा में खोजा. तुमने ठीक से नहीं खोजा. या पूरी तरह और शक्ति से नहीं खोजा. तुमने पूरा अपने को दाव पर नहीं लगाया.

इतना ही सिद्ध होता है. सुख मिलता है बड़ी गहन खोज से. लेकिन रास्ते में धीरे-धीरे कष्ट और कष्ट और कष्ट ङोलते-ङोलते तुम्हारा कष्ट के साथ संग-साथ बन गया. तुम्हारी दोस्ती कष्ट से हो गयी. अब तो तुम्हें ऐसा डर लगेगा कि कहीं कष्ट छूट न जाये, नहीं तो अकेले हो जायेंगे. इस तरह दुखवाद पैदा होता है.

– आचार्य रजनीश ओशो

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