प्रेम किसी समय की परिधि से परे है; उसे किसी भी समय-प्रबंधन में बांधा नहीं जा सकता. यही वजह है कि आप उस तक किसी चेतन प्रयत्न के द्वारा, किसी अनुशासन के द्वारा, किसी जुड़ाव-लगाव के द्वारा नहीं पहुंच सकते, यह सब तो समय की ही प्रक्रिया है. मन केवल समय की प्रक्रिया को जानता है, प्रेम को नहीं पहचान पाता.
मात्र प्रेम ही चिरनूतन है. चूंकि हममें से अधिकांश समय से उपजे मन की उधेड़-बुन में लगे रहते हैं, इसलिए हम नहीं जान पाते कि प्रेम क्या है. हम प्रेम के विषय में चर्चा करते हैं, प्रेम के बारे में सोचते हैं और हम कहते हैं कि हम लोगों से प्रेम करते हैं, हम अपने बच्चों से प्रेम करते हैं, अपनी पत्नी से प्रेम करते हैं, अपने पड़ोसी से प्रेम करते हैं, प्रकृति से प्रेम करते हैं, परंतु जैसे ही हम प्रेम के बारे में सचेत होते हैं कि हम प्रेम करते हैं, स्व अपनी गतिविधि के साथ सक्रिय हो जाता है.
इसलिए वह फिर प्रेम नहीं रहता. मन की इस प्रक्रिया को उसकी समग्रता में, केवल संबंध के माध्यम से समझा जा सकता है- प्रकृति से संबंध, लोगों से संबंध, स्वयं अपने प्रक्षेपणों, कल्पनाओं, दृष्टिकोणों से संबंध, अपने चारों ओर की हर चीज के साथ संबंध के माध्यम से.
जीवन संबंधों के अलावा कुछ नहीं. हालांकि, संबंध कष्टप्रद है, फिर भी हम उससे भाग नहीं सकते, न अलगाव के द्वारा और न साधु-संन्यासी बन कर ही. संबंधों से भागना प्रेम से विमुख होना है, लगाव से विमुख होना है.
जे कृष्णमूर्ति